Book Title: Jain Dharma aur Tantrik Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 475
________________ ४५३ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना साधय हुं फट् स्वाहा। आँ क्रीँ ही ल्ली हाँ पद्म! देवि! मम सर्वजगद्वश्यं कुरु कुरु सर्वविघ्नान् नाशय नाशय पुरक्षोभं कुरु कुरु, ही संवौषट् स्वाहा। ॐ आँ क्रों हाँ द्राँ द्रौँ कॅली ब्लूं सः झल्यूँ पद्मावती सर्वपुरजनान् क्षोभय क्षोभय मम पादयोः पातय पातय, आकर्षणी हीं नमः । ॐ ह्रीं क्राँ अर्ह मम पापं फट् दह दह हन हन पच पच पाचय पाचय हं मं मां इवीं हंस ब्भं वह्य यहः क्षां क्षीं झू झें क्षों क्षं क्षः क्षिं हाँ ही हं हे हों हौं हं ह: हिः हिं द्रां द्रिं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठः ठः मम श्रीरस्तु, पुष्टिरस्तु, कल्याणमस्तु स्वाहा।। इति श्रीपद्मावतीदण्डकसम्पूर्णम् ।। श्रीपद्मावतीपटलम्। श्रीमन्माणिक्यरश्मिफणगणमुकुटे! पद्मपत्रायताक्षि! हाँ ही होंकारनादे हहहहहसिते! हन्महाटट्टहासे!। हाँ ही हाँ ह: वहत्संवरवरवरणे धारिणे वज्रहस्ते! पद्म पद्मासनस्थे! प्रहसितवदने! देवि! मां रक्ष पद्म! ।।१।। क्षाँ क्षी खू खाँ क्षौँ क्षः क्षमलवरयुते! पिण्डबीजत्रिनेत्रे! क्षाँ क्षी क्षौँ क्षिप्रक्षिप्रे! तुरतुरगमने! नागिनीनाशपाशे! | क्षा क्षी क्षाँ क्षः दिक्षु क्षुभितदशदिशाबन्धनं वजहस्ते! रौद्रे त्रैलोक्यनाथे! प्रहसितवदने! देवि! मां रक्ष पद्मे ।।२।। घाँ घौ घौ घोररूपे घिणिघिणिघिणिते घण्टहोङ्कारनादे! कॅली ख्ली रॅली प्लाँ घुटीना घुलुघुलुघुलते! घर्जघर्जप्रमत्ते! । घं घं घं जुग्मयन्ती दह दह पच मे कर्म निर्मूलयन्ती दुष्टे दुष्टप्रहारे! कहकहवदने देवि! मा रक्ष पदमे! ।।३।। क्ष्म ढं ग्लाँ मन्त्रमूर्ते! फणिगणनिलये! डाकिनीस्तम्भकारी भाँ भी पूँ भ्रः भ्रमन्ते! भुवि रविभुविते भूरिभूम्येकपादे! | किं किं बिम्बं प्रचण्डे! स्थिरवसससस कामिनीमोहपाशे! | व ॐकारे मन्त्रमूर्ते! सुसुमगणयुते! देवि! मां रक्ष. पद्मे ।।४।। घाँ घी घाँ पद्महस्ते! ग्रहकुलमथने! डाकिनीसिंहनादे! .. हं हं हं वायुवेगे हहहहहसिते! हन्महाटट्टहासे! | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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