Book Title: Jain Dharma aur Tantrik Sadhna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 469
________________ ४४७ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना हा पक्षी (क्षि) बीजगर्भे सुरवररमणीचर्चितेऽनेकरूपे! कोपं वं झं विधेयं धरिततवधरे योगिनी योगमार्गे। हं हंसः स्वर्गजैश्च प्रतिदिननमिते! प्रस्तुतापापपट्टे दैत्येन्द्रायमाने! विमलसलिलजैस्त्वां यजे देवि! पद्मे ।।२।। गन्धम २ दैत्यैर्दैत्यारिनाथै मितपदयुगे!! भक्तिपूर्वे त्रिसन्ध्यं यक्षैः सिद्धेश्च नगैरहमहमिकया देहकान्त्याश्च कान्त्यै। आं इं उं तं अ आ आ गृढ गृढ मृडने सः स्वरे न्यस्वरे नै: तेवप्राहीयमाने क्षतधवलभरैस्त्वां यजे देवि! पद्म! ।।३।। अक्षतम्। क्षां क्षीं झू क्षः स्वरूपे! हन विषमविषं स्थावरं जङ्गमं वा संसारे संसृतानां तव चरणयुगे सर्वकालानन्तराले। अव्यक्तव्यक्तरूपे! प्रणतनरवरे! ब्रह्मरूपे! स्वरूपे! पंक्तियोगीन्द्रगम्ये सुरभिशुभक्रमे! त्वां यजे देवि! पद्म! ।।४।। पुष्पम्।। पूर्णं विज्ञानशोभाशशधरधवले दास्यबिम्बं प्रसन्नै रम्ये स्वच्छे स्वकान्त्यै द्विजकरनिकरे चन्द्रिकाकारभासे। आस्मिकिन्नाभवल् दिनमनुसततं कल्मषं क्षालयन्ती श्रां श्रीं श्रू मन्त्ररूपे! विमलचरुवरैस्त्वां यजे देवि! पद्म! ।।५।। नैवेद्यम्! भास्वत्पद्मासनस्थे! जिनपदनिरते! पद्महस्ते! प्रशस्ते! प्रां प्रीं पूँ प्रः पवित्रे! हर हर दुरितं दुष्टजं दुष्टचेष्टे । वाचाला भावभक्त्या त्रिदशयुवतिभिः प्रत्यहं पूज्यपादे! चन्द्रे चन्द्रीकराले मुनिगृहमणिभिस्त्वां यजे देवि पद्म! ।।६।। दीपम् ।। नभ्रीभूतक्षितीशप्रवरमणितटोघृष्टपादारविन्दे! पद्माक्षे! पद्मनेत्रे! गजपतिगमने! हंसशुभ्रे विमाने। कीर्तिश्रीवृद्धिचक्र! शुभजयविजये! गौरिगान्धारियुक्ते! देए देए शरण्ये गुरुसुरभिभरैस्त्वां यजे देवि! पद्दे! | १७ ।। धूपम्।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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