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३१२ कुण्डलिनी जागरण एवं षट्चक्रभेदन यही नहीं, हरिभद्र (८वीं शती) के योगदृष्टिसमुच्चय आदि योग संबंधी ग्रंथों में शुभचन्द्र (१२ वीं शती) के ज्ञानार्णव एवं हेमचन्द्र (१२ वीं शती के योगशास्त्र में भी हमें इन चक्रों का कोई भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार षट्चक्र की अवधारणा १२ वीं शताब्दी के पश्चात् ही जैन परम्परा में अस्तित्व में आयी। सर्वप्रथम आचार्य विबुधचन्द्र के शिष्य सिंहतिलकसूरि (१३वीं शती) ने अपने परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्प नामक ग्रंथ में इन नव चक्रों का उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध भी होता है कि चक्रों की यह अवधारणा उन्होंने हिन्दू तन्त्र से ही अवतरित की है क्योंकि उनके नाम आदि हिन्दू परम्परा के अनुरूप एवं बौद्ध परमपरा से भिन्न हैं। उनके अनुसार ये नवचक्र निम्न हैं- १. आधारचक्र २. स्वाधिष्ठानचक्र ३. मणिपूरचक्र ४. अनाहतचक्र ५. विशुद्धिचक्र ६. ललनाचक्र ७. आज्ञाचक्र ८. ब्रह्मरन्ध्रचक्र (सोमचक्र) और ६. सुषम्नाचक्र (ब्रह्मबिन्दुचक्र या सहस्रार चक्र)। सिंहतिलकसूरि ने इन नौ चक्रों के शरीर में नौ स्थान भी बताये हैं उनके अनुसार आधारचक्र गुदा के मध्यभाग में, स्वाधिष्ठानचक्र लिंगमूल के समीप, मणिपूरचक्र नाभि में, अनाहतचक्र हृदय के समीप, विशुद्धिचक्र कण्ठ में, ललनाचक्र तालु में घंटिका (कण्ठकूप) के समीप, आज्ञाचक्र कपाल में दोनों भौहों के बीच, ब्रह्मरन्ध्रचक्र मूर्धा के समीप और सुषुम्नाचक्र मस्तिष्क ऊर्ध्व भाग में स्थित है। प्रत्येक चक्र के कमलदलों की संख्या इस प्रकार बतायी गयी हैमूलाधारचक्र में ४ दल, स्वाधिष्ठान में ६, मणिपुर में १०, अनाहत में १२, विशुद्धि में १६, ललना में २०, आज्ञा में ३, ब्रह्मरन्ध्र में १६ और ब्रह्मबिन्दु या सहस्रारचक्र में ६ दल होते हैं। कुछ आचार्यों के अनुसार ब्रह्मबिन्दु या सहस्रारचक्र में सहस्र (१०००) दल होते हैं। सिंहतिलकसूरि के अनुसार ललनाचक्र में वाशक्ति (सरस्वती), आज्ञाचक्र में मन और ब्रह्मचक्र में चन्द्र के समान शीतल एवं निर्मल परमात्मशक्ति का निवास है। इनके दलों पर एक विशिष्ट व्यवस्था के अनुसार मातृकाक्षरों का स्थान है। इनमें आधारचक्र रक्त, स्वाधिष्ठान अरुणाभ, मणिपूर चक्रश्वेत, अनाहतचक्र पीत; विशुद्धिचक्र श्वेत, ललना, आज्ञा और ब्रह्मचक्र रक्तवर्ण के और सहस्रार चक्र श्वेत रंग वाला है। इस प्रकार आचार्य सिंहतिलकसूरि ने इन चक्रों के नाम, स्थान, कमलदलों की संख्या, रंग, बीजाक्षर आदि की चर्चा की है हम उनके ग्रन्थ का मूल अंश नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं
अत्र विशेषः (कुण्डलिनीवर्णन विशेष)- गुदमध्य–लिङ्मूले नाभौ हृदि कण्ठघण्टिका,- भाले मूर्धन्यूर्ध्व नवषटकं (चंक्र?) ठान्ताः पञ्च भाले (ल?) युताः
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