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जैनधर्म और तांत्रिक साधना एवं तर्जनी के मध्य में एकत्र करके अनामिका में मिलाने से 'परमेष्ठीमुद्रा' होती है। अथवा अंगुलियों को आधा मोड़कर मध्यमा को मध्य में करने से दूसरी परमेष्ठीमुद्रा होती है। हथेलियों को ऊपर करके अंगुलियों को कुछ सिकोड़कर रखने से
'अञ्जलिमुद्रा' अथवा 'पल्लवमुद्रा' होती है। ७. हाथ की अंगुलियों को परस्पराभिमुख करके गूंथकर तर्जनियों से अनामिका
को पकड़कर, मध्य में फैलाकर उनके बीच में दोनों अंगूठों को डालने से
'सौभाग्यमुद्रा होती है। ८. समान हाथों को समतल करके कुछ गहरा कर ललाट देश में लगाने से
'मुक्तासुक्तिमुद्रा' होती है। हाथों की परस्पर विमुख अंगुलियों को मिलाकर दूर से ही अपनी ओर
परिवर्तित करने से 'मुद्गरं मुद्रा होती है। १०. बाएँ हाथ की मिली हुई अंगुलियों को हृदय के आगे रखकर दायीं मुट्ठी
बाँधकर तर्जनी को ऊपर करने से तर्जनी मुद्रा होती है। ११. तीन अंगुलियों को सीधा करके तर्जनी और अंगूठे को छिपाकर हृदयाग्र
में रखने से 'प्रवचन मुद्रा' होती है। १२. एक-दूसरे से गुथी हुई अंगुलियों में कनिष्ठिका को अनामिका एवं मध्यमा
को तर्जनी के साथ जोड़ने से गोस्तनाकार 'धेनुमुद्रा' होती है। १३. हस्ततल के ऊपर हस्ततल रखने से 'आसन मुद्रा होती है। १४. दक्षिण अंगुष्ठ द्वारा तर्जनीमध्य को लपेटकर पुनः मध्यमा को छोड़ने से
'नाराचमुद्रा होती है। १५. हस्तस्थापन करने से 'जनमुद्रा होती है। १६. बाएँ हाथ के पीठ पर दाहिना हस्ततल रखने एवं दोनों अंगूठों को चलाने
से 'मीन मुद्रा होती है। १७. दाहिने हाथ की तर्जनी को फैलाकर मध्यमा को थोड़ा टेढ़ा करने से 'अंकुश
मुद्रा होती है।
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