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अध्याय - ११
जैनधर्म का तंत्र साहित्य
‘तंत्र' शब्द अपने मूल अर्थ में आगम का वाचक है। आचार्य हरिभद्र (६वीं शती) ने पंचाशक एवं ललितविस्तरा नामक शक्रस्तव की टीका में तंत्र शब्द का प्रयोग किया है। आगे चलकर तंत्र शब्द आध्यात्मिक एवं लौकिक उपलब्धियों हेतु की जाने वाली साधना - विधि का भी वांचक बना। जहाँ तक तंत्र सम्बन्धी साहित्य का प्रश्न है, यदि तंत्र साधना आध्यात्मिक विकास हेतु की जाने वाली साधना है, तो उसके उल्लेख तो आचारांग, सूत्रकृतांग उत्तराध्ययन दशवैकालिक आदि प्राचीन स्तर के आगमों से लेकर आज तक रचित अनेक जैन साधना से सम्बन्धित ग्रन्थों में मिल जाता है । किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में तंत्र शब्द को इतने व्यापक अर्थ में न लेकर अलौकिक शक्तियों या भौतिक उपलब्धियों के हेतु की जाने वाली साधना के सीमित अर्थ में लिया गया है ।
अपने इस सीमित अर्थ में तंत्र सम्बन्धी साहित्य की चर्चा के प्रसंग में हम पाते हैं कि जैन आगमों में अंग-आगम विभाग के अन्तर्गत बारहवां अंग दृष्टिवाद माना गया है । दृष्टिवाद का एक विभाग पूर्वगत है, जिसमें चौदह पूर्व माने गये हैं। इन १४ पूर्वी में दसवां पूर्व विद्यानुप्रवादपूर्व है । यह माना जाता है कि इसके अन्तर्गत विभिन्न विद्याओं की साधना संबंधी विधिविधान निहित थे। इसी प्रकार दसवें अंग प्रश्नव्याकरणसूत्र की समवायांग और नन्दीसूत्र में दस जिस विषयवस्तु का उल्लेख है वह भी मंत्र-तंत्र से संबंधित थी, ऐसी परम्परागत धारणा है किन्तु दुर्भाग्य से आज न तो विद्यानुप्रवाद पूर्व ही उपलब्ध है और न प्रश्नव्याकरण सूत्र में वह विषयवस्तु ही उपलब्ध है जो मंत्रादि साधना से सम्बन्धित थी । अतः आज यह कहना कठिन है कि जैन परम्परा में मंत्र-तंत्र विद्या का प्राचीन स्वरूप क्या था । ऋषभदेव के पौत्र नमि और विनमि को आकाशगामिनी आदि विद्याप्रदान करने का वर्णन और विद्याधर जाति के उद्भव की कथा सर्वप्रथम वसुदेवहिंडी (५वीं शती) में उपलब्ध होती है । इसी प्रकार कल्पसूत्र में जैन मुनियों के विद्याधर कुल के आविर्भाव का भी उल्लेख मिलता है। हो सकता है कि जैन मुनियों का यह वर्ग मंत्र-तंत्रात्मक विद्याओं की उपासना या साधना करता रहा हो । मथुरा के जैन अंकनों में एक नग्न किन्तु हाथ में कम्बल लिये हुए आकाशमार्ग से गमन करते हुए मुनि को प्रदर्शित किया गया है। जैन साहित्य में भी जंघाचारी और विद्याचारी मुनियों के उल्लेख मिलते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा में ईसा की दूसरी शताब्दी से मंत्र-तंत्र
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