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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना नाम भी तांत्रिक परम्परा से ही आया है। योगशास्त्र (१२वीं शती)
यह कृति भी मुख्यतया जैन धर्म की आध्यात्मिक साधना से संबंधित है। इसके प्रारम्भिक चार प्रकाश तो श्रावक के व्रतों की साधना से संबंधित हैं। चतुर्थ प्रकाश में कषायजय और मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावनाओं का उल्लेख है। जो साधना के आध्यात्मिक पक्ष से ही संबंधित हैं। किन्तु ग्रन्थ के पंचम प्रकाश में प्रणायाम के द्वारा शुभाशुभ फल निर्णय करने तथा मृत्यु काल का निर्णय करने के साथ-साथ मण्डलों और वायु के प्रकारों का भी निर्देश है, षष्ठ प्रकाश में परकाय प्रवेश का उल्लेख है। वे स्पष्टतः तंत्र से प्रभावित हैं। इसीप्रकार सप्तम् प्रकाश से एकादश प्रकाश तक जो ध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत प्रकारों की चर्चा है वह स्पष्टतः हिन्दू तंत्र से प्रभावित है। इस प्रकार यह भी जैन तंत्र की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। एकीभावस्तोत्र
२६ श्लोकों की यह लघुकृति वादिराजसूरि द्वारा लगभग ११वीं शताब्दी में लिखी गई है। इस स्तोत्र को भी तांत्रिक शक्ति से युक्त माना जाता है। किन्तु इसके मन्त्र, तन्त्र या यन्त्र की साधना का कोई विधान प्राप्त नहीं होता
रिष्टसमुच्चय एवं महाबोधि मन्त्र
यह कृति आचार्य दुर्गदेव द्वारा ई०सन् १०३२ के श्रावण शुक्ला एकादशी को मूल नक्षत्र में निर्मित की गयी है। इसमें मरणसूचक चिन्हों की जानकारी के साथ-साथ अम्बिका मन्त्र एवं कुछ अन्य मन्त्र भी दिये गये हैं। इन्हीं आचार्य दुर्गदेव की एक कृति महोदधिमन्त्र भी है। ये दोनों ग्रन्थ प्राकृत भाषा में निर्मित हुए हैं। भैरवपद्मावतीकल्प
इस कृति के रचयिता आचार्य मल्लिषेण हैं जिन्होंने ११वीं शती में ४०० अनुष्टुप् श्लोकों में इसकी रचना की । इस कृति को आचार्य ने निम्न १० परिच्छेदों में विभाजित किया है।
प्रथम परिच्छेद में पदमावती के नाम से मंगलाचरण किया गया है, तथा मन्त्र साधक आदि के लक्षण बतलाये गये हैं।
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