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३४९ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना के प्रति एक निष्ठा का विकास हो गया था। चूर्णि साहित्य (७वीं शती) में पार्श्व की परम्परा के कुछ मुनियों एवं साध्वियों द्वारा आध्यात्मिक संयम-साधना से पतित होकर निमित्त शास्त्र आदि में अनुरक्त होने की चर्चा है। यह सत्य है कि जैन परम्परा में तन्त्र एवं तांत्रिक साधना का सम्बन्ध पार्श्व और उनकी परम्परा से जोड़ा जाता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ प्राचीन स्तर के जैनागमों में मुनि के लिये मंत्र-तंत्र की साधना का स्पष्ट निषेध था, वहीं परवर्ती ग्रन्थों में जिन धर्म की प्रभावना और संघ रक्षा के निमित्त मंत्र-तंत्र की साधना की सीमित रूप में स्वीकृति दी गयी है, इसके परिणामस्वरूप जैन मुनियों ने मंत्र-तंत्र एवं विद्याओं की सिद्धि से संबंधित साहित्य का निर्माण भी प्रारम्भ किया। अंग आगमों में सूत्रकृतांग (२/२/१५) में पापश्रुतों में वैताली, अर्धवैताली, अवस्वप्नी, लालुद्धाटणी, श्वापाकी, सोवारी, कलिंगी, गौरी, गान्धारी, अवेदनी, उत्थापनी एवं स्तम्भनी आदि विद्याओं के उल्लेख हैं। स्थानांग (८/३ एवं ६/३) में एवं ज्ञाताधर्मकथा भी में भी कुछ विद्याओं के उल्लेख मात्र हैं। उपाग साहित्य में सम्भवतः सर्वप्रथम औपपातिक सूत्र (लगभग प्रथम से चतुर्थ शती) में महावीर के श्रमणों को विद्या (विज्जा) और मंत्र (मंत) से सम्पन्न माना गया है। उपांग साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ सूर्यप्रज्ञप्ति (ई०पू० द्वितीय शती) का नक्षत्र आहार विधान तंत्र से प्रभावित है जैन परम्परा के पूर्व साहित्य को विद्वानों ने पार्श्व की परम्परा से संबंधित माना है। अतः विद्यानुप्रवाद तंत्र से संबंधित ग्रन्थ रहा होगा इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता, क्योंकि स्थूलिभद्र ने इस पूर्व का अध्ययन करके अनावश्यक रूप से मंत्र विद्या का प्रयोग किया था और इसी के कारण उन्हें दंडित भी किया गया और भद्रबाहु ने इसके आगे उन्हें अध्ययन करवाने से इंकार कर दिया था। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में जैनाचार्य मंत्र और विद्याओं के जानकार तो अवश्य थे किन्तु इनके प्रयोगों को वे उचित नहीं समझते थे। इसी प्रकार हम देखते हैं कि प्रश्नव्याकरणसूत्र में (लगभग प्रथम-द्वितीय शताब्दी में) उसकी मूलभूत विषय वस्तु, जो मेरी दृष्टि में वर्तमान में ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन के रूप में उपलब्ध है, उसे वहां से अलग करके उसमें मंत्र-तंत्र और निमित्तशास्त्र संबंधी सामग्री डाली गयी किन्तु आगे उस सामग्री का दुरुपयोग प्रारम्भ हुआ और जैन मुनि मंत्र-तंत्र वाद में उलझने लगे, पुनः छठी शती के अंत में उसमें से वह सामग्री भी अलग कर दी गयी। इससे ऐसा लगता है कि लगभग ईसा की चौथी-पांचवीं शती तक भी जैनाचार्यों ने मंत्र-तंत्रात्मक साधना को उचित नहीं माना था।
अंगविज्जा (दूसरी शती)- जैन परम्परा में मंत्र-तंत्र या निमित्तशास्त्र
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