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तान्त्रिक साधना के विधि-विधान पृथ्वी के बीज से परिपूर्ण, वज्र के चिन्ह से युक्त, चौरस और तपाये हुए साने के वर्ण - रंगवाला, 'पर्थिव मंडल * है।
२. वारुण- मण्डल
स्यादर्धचन्द्रसंस्थानं वारुणाक्षरलाञ्छितम् ।
चन्द्राभममृतस्यन्दसान्द्रं वारुण - मण्डलम् ।।४४।।
वारुण-मण्डल- अष्टमी के चन्द्र के समान आकार वाला, वारुण अक्षर 'व' के चिन्ह से युक्त, चन्द्रमा के सदृश उज्ज्वल और अमृत के झरने से व्याप्त है ।
३. वायव्य - मण्डल
स्निग्धाञ्जनधनच्छायं सुवृत्तं बिन्दुसंकुलम् ।
दुर्लक्ष्यं पवनाक्रान्तं चञ्चलं वायु मण्डलम् । । ४५ ।।
वायव्य-मण्डल - स्निग्ध अंजन और मेघ के समान श्याम कान्ति वाला, गोलाकार, मध्य में बिन्दू के चिह्न से व्याप्त, मुश्किल से मालूम होने वाला, चारों ओर पवन से वेष्टित- पवन - बीज 'य' अक्षर से घिरा हुआ और चंचल है।
४. आग्नेय मण्डल
ऊर्ध्वज्वालाञ्चितं भीमं त्रिकोणं स्वस्तिकान्वितम् ।
स्फुलिंगपगि तद्बीजं ज्ञेयमाग्नेय - मण्डलम् । । ४६ । ।
ऊपर की ओर फैलती हुई ज्वालाओं से युक्त, भय उत्पन्न करने वाला, त्रिकोण, स्वस्तिक के चिह्न से युक्त, अग्नि के स्फुलिंग के समान वर्ण वाला और अग्नि-बीज रेफ (' ) से युक्त आग्नेय - मण्डल कहा गया है।
अभ्यासेन स्वसंवेद्यं स्यान्मण्डल - चतुष्टयम् ।
क्रमेण संचरन्नत्र वायुर्ज्ञेयश्चतुर्विधः । । ४७ ।।
पूर्वोक्त चारों मंडल स्वयं जाने जा सकते हैं, परन्तु उन्हें जानने के
टिप्पण - पार्थिव-बीज 'अ' अक्षर है । कोई-कोर्ट आचार्य 'ल' को पार्थिव - बीज मानते है । आचार्य हेमचन्द्र ने 'क्ष' को पार्थिव - बीज माना है ।
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