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३३० तान्त्रिक साधना के विधि-विधान ११/१६/६८-१०२), ब्रह्मपुराण (६१/५५), नारदीयपुराण (२/५७/५५-५६) आदि अनेक हिन्दू पुराणों और तान्त्रिक ग्रन्थों में मुद्राओं के उल्लेख मिलते है। बौद्ध-परम्परा में भी मंजूश्रीकल्प (३८०) में १०८ मुद्राओं के नाम दिये गये हैं। जैन परम्परा में अभिधानराजेन्द्रकोश में योगमुद्रा, जिनमुद्रा और मुक्तासुक्तिमुद्रा का तथा जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश में योगमुद्रा, जिनमुद्रा, वंदनामुद्रा और मुक्तासुक्तिमुद्रा-ऐसी चार मुद्राओं का उल्लेख मिलता है- १. दोनों भुजाओं को लटकाकर और दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर कायोत्सर्ग में खड़े रहने का नाम जिनमुद्रा है। २. पल्यंकासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों में से किसी भी आसन में बैठकर, नाभि के नीचे, ऊपर की तरफ हथेली करके दोनों हाथों को ऊपर नीचे रखने से योगमुद्रा होती है। ३. खड़े होकर दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर रखने और दोनों हाथों को मुकुलित कमल के आकार में बनाने पर वन्दनामुद्रा होती है। ४. वन्दबामुद्रा के समान ही खड़े होकर, दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर रखकर, दोनों हाथों की अंगुलियों को आकार विशेष, के द्वारा आपस में संलग्न करके मुकुलित बनाने से मुक्तासुक्तिमुद्रा होती है।
प्रियबलशाह ने जर्नल आफ इन्स्टीट्यूट आव बड़ौदा के खण्ड-६, संख्या-१, पृष्ठ १३५ में मुद्राओं से सम्बन्धित दो जैन ग्रन्थों का उल्लेख किया है- १. मुद्राविचार और २. मुद्रा विधि । उनका कथन है कि मुद्रा विचार में ७३ मुद्राओं का और मुद्राविधि में ११४ मुद्राओं का उल्लेख मिलता है। अभी ये दोनों ग्रन्थ मुझे देखने को नहीं मिले हैं। उपलब्ध एवं प्रकाशित जैन ग्रन्थों में लघुविद्यानुवाद में ४५ मुद्राओं को परिभाषित किया गया है और कुछ मुद्राओं के चित्र भी दिये गये हैं। भैरवपद्मावतीकल्प के अन्त में भी कुछ मुद्राओं के चित्र है, किन्तु ये मुद्राएं वही है जो लघुविद्यानुवाद में उल्लिखित हैं। ये मुद्राएं निम्न हैं
१. बाएँ हाथ के ऊपर दहिना हाथ रखकर कनिष्ठिका और अंगूठों से मणिबन्ध __ को लपेटकर अवशिष्ट अंगुलियों को फैलाने से 'वजमुद्रा होती है।
२. (हाथों को) पद्माकार करके अंगूठे को मध्य में कर्णिकार में रखने से
'पद्ममुद्रा होती है। ३. वामहस्ततल में दक्षिणहस्तमूल को निविष्ट कर अंगुलियों को अलग-अलग
फैलाने में 'चक्रमुद्रा होती है। ४. ऊपर उठाये हुए हस्तद्वय के द्वारा वेणीबंध करके अंगूठों को कनिष्ठिका
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