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जैनधर्म और तांत्रिक साधना करना अनिवार्य है, क्योंकि नीचे के केन्द्रों पर ध्यान करने से व्यक्ति बहिर्मुखी बनता है और ऊपर के केन्द्रों पर ध्यान करने से मन एकाग्र करने से अन्तर्मुखता आती है।
जैनदर्शन में आत्मा को शरीरव्यापी माना गया है। अतः सम्पूर्ण शरीर ही चेतना केन्द्र है, फिर भी शरीर के कुछ भागों जैसे मस्तिष्क, ऐन्द्रिक संवेदना स्थल आदि में चेतना अधिक सक्रिय होती है, अतः इन चेतना केन्द्रों पर ध्यान करने से हमारी आत्मा (चेतना) कर्ता-भोक्ता भाव में न जी कर ज्ञाताद्रष्टा भाव में जीने की अभ्यस्त होती है। मेरी दृष्टि में यही कुण्डलिनी जागरण और षट्चक्रों के भेदन का रहस्य है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में यही इड (Id) अर्थात् वासनात्मक अहं की ग्रन्थियों के उन्मूलन द्वारा निर्द्वन्द्व चेतना की उपलब्धि है। समाधि या समत्व की उपलब्धि है। आत्मा और परमात्मा का मिलन है।
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