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ध्यान साधना और जैनधर्म उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ ध्यान ।
इस प्रकार चारों शुक्ल ध्यान बौद्ध परम्परा में भी थोड़े शाब्दिक अन्तर के साथ उपस्थित हैं।
योग परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि जैन परम्परा के शुक्लध्यान के चारों प्रकारों के समान ही लगते हैं। समापत्ति के चार प्रकार हैं- १. सवितर्का, २. निर्वितर्का, ३. सविचारा और ४. निर्विचारा।
शुक्लध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र के (शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः तत्त्वार्थ. ६/३६) श्वेताम्बर मूलपाठ और दिगम्बर मूलपाठ में तो अन्तर नहीं है किंतु 'च' शब्द से क्या अर्थ ग्रहण करना इसे लेकर मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उपशान्त कषाय एवं क्षीणकषाय पूर्वधरों में चार शुक्लध्यानों में प्रथम दो शुक्लध्यान सम्भव हैं। बाद के दो, केवली (सयोगी केवली और अयोगी केवली) में सम्भव हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार आठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक शुक्लध्यान है। पूर्व के दो शुक्लध्यान आठवें से बारहवें गुणस्थानवर्ती पूर्वधरों के सम्भव होते हैं और शेष दो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली के ।८७ जैन ध्यान साधना पर तान्त्रिक साधना का प्रभाव
पूर्व में हम विस्तार से यह स्पष्ट कर चुके हैं, कि ध्यान साधना श्रमण परम्परा की अपनी विशेषता है। उसमें ध्यान साधना का मुख्य प्रयोजन आत्म विशुद्धि अर्थात् चित्त को विकल्पों एवं विक्षोभों से मुक्त कर निर्विकल्प दशा या समाधि (समत्व) में स्थित करना रहा है। इसके विपरीत तान्त्रिक साधना में ध्यान का प्रयोजन मन्त्रसिद्धि और हठयोग में षटचक्रों का भेदन कर कुण्डलिनी को जागृत करना है। यद्यपि उनमें भी ध्यान के द्वारा आत्मशांति या आत्मविशुद्धि की बात कही गई है, किन्तु यह उनपर श्रमण धारा के प्रभाव का ही परिणाम है क्योंकि वैदिक धारा के अथर्ववेद आदि प्राचीन ग्रन्थों में मंत्रसिद्धि का प्रयोजन लौकिक उपलब्धियों के हेतु विशिष्ट शक्तियों की प्राप्ति ही था। वस्तुतः हिन्दू तान्त्रिक साधना वैदिक और श्रमण परम्पराओं के समन्वय का परिणाम है। उसमें मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन आदि षट्कर्मों के लिए मंत्र सिद्धि की जो चर्चा है वह वैदिक धारा का प्रभाव है क्योंकि उसके बीज अर्थववेद आदि में भी हमें उपलब्ध होते हैं जबकि ध्यान, समाधि आदि के द्वारा आत्मविशुद्धि की जो चर्चा है वह निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का प्रभाव है। किन्तु यह भी सत्य है कि सामान्य रूप से श्रमण धारा और विशेष रूप से जैनधारा पर भी हिन्दू तान्त्रिक साधना और विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव आया है।
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