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३०४ कुण्डलिनी जागरण एवं षट्चक्रभेदन काल में कहीं कोई लोकपुरुष की अवधारणा अवश्य रही होगी, अन्यथा ग्रैवेयक देवलोक को ग्रीवा-स्थानीय कैसे माना जाता? उपलब्ध जैन साहित्य में लोकप्रकाश में सर्वप्रथम हमें लोकपुरुष की कल्पना मिलती है। इसके पश्चात् लगभग १० वीं शती से तो लोक पुरुष की यह अवधारणा जैनों के सभी सम्प्रदायों में मान्य रही है।
वस्तुतः प्राचीन काल में शरीर को ही आत्मशक्ति का केन्द्र माना जाता था और आत्मसाधना के लिए शरीर के शक्ति केन्द्रों या चेतना केन्द्रों का जागरण अर्थात् उनके प्रति सजगता आवश्यक मानी गई। यद्यपि प्रारम्भ में जैन परम्परा में कुण्डलिनी जागरण और षट्चक्रों की साधना के कोई उल्लेख नहीं हैं फिर भी शरीर और शारीरिक क्रिया-कलापों के प्रति सजगता उनकी ध्यानसाधना का आवश्यक अंग रही है। वस्तुतः हठयोग में कुण्डलिनी जागरण एवं षट्चक्रों के भेदन की जो साधना पद्धति विकसित हुई, उसके मूल में भी आनापानसति, विपश्यना, प्रेक्षा आदि की ध्यान परम्पराएँ रही है। कुण्डलिनी जागरण
पिण्ड और ब्रह्माण्ड में प्रतिरूपता स्थापित करते हुए हठयोग की परम्परा में इस शरीर में कटि प्रदेश से शीर्ष तक सप्त चक्रों की कल्पना की गई है जो सप्तलोकों के प्रतीक हैं। जिस प्रकार लोक में मेरु को केन्द्रीय आधार माना जाता है उसी प्रकार शरीर में मेरुदण्ड है। यह मेरुदण्ड अस्थिखण्डों से बना हुआ है तथा भीतर से पोला है। इसी में महाशक्ति कुण्डलिनी का निवास माना गया है। शरीर में बत्तीस हजार नाड़ियां मानी गयी हैं इनमें से मुख्य नाड़ियां चौदह हैं, उनमें भी तीन प्रधान हैं- १. इड़ा २. पिंगला और ३. सुषुम्ना। इड़ा नाड़ी मेरुदण्ड के बायीं और पिंगला नाड़ी उसकी दाहिनी ओर से होकर जाती है। सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड के भीतर कन्दप्रदेश से प्रारम्भ होकर मस्तिष्क में सहस्रदलकमल तक जाती है। हठयोग में इसी सुषुम्ना नाड़ी में पिरोये हुए छ: कमलों की कल्पना की गई है जिन्हें षट्चक्रों के नाम से जाना जाता है। इन षट्चक्रों की साधना से सुषुम्ना नाड़ी जो कुण्डलिनी शक्ति का प्रतीक है, जागृत होती है। सहस्रारचक्र जो मस्तिष्क के उर्ध्व भाग में स्थित है, इसे शिव क्षेत्र कहा जाता है, और मूलाधारचक्र शक्ति क्षेत्र है, इन दोनों को परस्पर जोड़ने वाली शक्ति का नाम ही कुण्डलिनी है। कुण्डलिनी वस्तुतः चेतना शक्ति है।
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