________________
२५५
जैन धर्म और तांत्रिक साधना
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में यन्त्रोपासना का विकास हुआ है और वह आजतक जीवित भी है। किन्तु लगभग नवीं-दसवीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में हमें कहीं भी यंत्रों के निर्माण और उनकी उपासना के उल्लेख नहीं मिलते। बाद में १०वीं-११वीं शताब्दी से जैन ग्रंथों में यंत्र रचना
और यंत्रोपासना के विधि-विधान परिलक्षित होने लगते हैं। इससे यह भी फलित होता है कि यंत्रोंपासना की पद्धति जैनों की अपनी मौलिक नहीं रही। उन्होंने उसे अन्य परम्पराओं के प्रभाव से ही अपने में विकसित किया। सम्भावना यही है कि हिन्दू और बौद्ध परम्पराओं के प्रभाव से जैनों में यंत्र रचना और यंत्रोपासना की पद्धति विकसित हुई हो, किन्तु यंत्रों की आकृतिगत समरूपता को छोड़कर जैन यन्त्रों की हिन्दू और बौद्ध यंत्रों से और कोई समरूपता नहीं है। यंत्रों में लिखे जाने वाले नामों, पदों, बीजाक्षरों अथवा संख्याओं की योजना उन्होंने अपने ढंग से ही की है। अतः हम यह कह सकते हैं कि यन्त्रों के प्रारूप तो जैनों ने अन्य परम्पराओं से गृहीत किये किन्तु उनकी विषय वस्तु और यन्त्र रचना विधि जैनों की अपनी मौलिक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org