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दर्पण संबंधी मंत्र
ॐ नमो मेरु महामेरु, ॐ नमो गौरी महागौरी, ॐ नमः काली महाकाली, ॐ इन्द्रे महाइन्द्रे, ॐ जये महाजये, ॐ नमो विजये महाविजये ॐ नमः पण्णसमणि महापण्णसमणि, अवतर अवतर देवि अवतर अवतर स्वाहा ।।
( जैन परम्परा में निर्मित)
मंत्र साधना और जैनधर्म
ॐ चले चुले चूडे (ले) कुमारिकयोरङ्ग प्रविश्य यथाभूतं यथाभाव्यं यथासत्यं दर्शय दर्शय भगवती मां विलम्बय ममाशां पूरय पूरय स्वाहा । ।
सर्पदंश जनित विषापहार संबंधी मंत्र
ॐ नमो भगवते पार्श्वतीर्थंङ्गराय हंसः महाहंसः पद्महंसः शिवहंसः कोपहंसः उरगेशहंसः पक्षि महाविषभक्षि हुं फट् ।
( जैन परम्परा में निर्मित)
सामान्यतया जैनाचार्यों द्वारा निर्मित मंत्रों में मारण और उच्चाटन सम्बन्धी मंत्रों का प्रायः अभाव ही है । फिर भी अन्य परम्पराओं के मारण और उच्चाटन सम्बन्धी कुछ मन्त्र जैन परम्परा में भी गृहीत हो गये हैं ।
यहाँ यह भी स्मरणीय है कि लघुविद्यानुवाद में जो अनेकों मंत्र दिये गये हैं वे मूलतः जैनपरम्परा में विकसित या निर्मित नहीं हैं। जानकारी के लिये इतना बता देना पर्याप्त होगा कि उसमें कृष्ण, हनुमान, ब्रह्म, शंकर, विष्णु आदि से सम्बन्धित भी अनेक मंत्र हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि उन्होंने गुरु परम्परा से या गुटकों आदि में जो भी मंत्र मिले उन्हें बिना किसी समीक्षा के निःसंकोच भाव से ग्रहण कर लिया है यहाँ तक कि उसमें मारण, मोहन या उच्चाटन सम्बन्धी मंत्र भी आ गये हैं, जो जैन परम्परा के अनुकूल नहीं हैं।
शक्रस्तवः मांत्रिक स्वरूप
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जैन परम्परा में 'नमस्कारमहामंत्र' और 'चतुर्विंशतिस्तव' के साथ साथ शक्रस्तव का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि इसका नाम शक्रस्तव है, किन्तु यह शक्र (इन्द्र) की स्तुति न होकर शक्र के द्वारा की गई अर्हत् (तीर्थंकर) की स्तुति है । वीरस्तव के पश्चात् यह जैन परम्परा का प्राचीनतम स्तोत्र है । इसमें अरहंत ( अर्हत ) के गुणों का ही संकीर्तन किया गया है। परमात्मा के ये गुण ही उसके पर्यायवाची नाम भी बन गये। जिसप्रकार नमस्कार महामंत्र और चतुर्विंशतिस्तव
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