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स्तोत्रपाठ, नामजप एवं मंत्रजप जहाँ तक मंत्र - जप का प्रश्न है प्राचीन जैनागमों में हमें मंत्र - जप और उसके विधि-विधान के संबंध में कहीं कोई संदर्भ प्राप्त नहीं होता। जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं जैन परम्परा में मन्त्रों की रचना पञ्चपरमेष्ठि, नवपद, चौबीस तीर्थंकर, गणधर और लब्धिधर के नामों के साथ तान्त्रिक परम्परा के बीजाक्षरों को योजित करके मन्त्रों की रचना हुई । कालक्रम में श्रुतदेवता (सरस्वती), श्री देवता (लक्ष्मी), सोलह विद्यादेवियों, चौबीस यक्षों और चौबीस यक्षिणियों के नामों के साथ भी बजाक्षरों की योजना करके मन्त्रों की रचनाएँ हुईं। यह ज्ञातव्य है कि विद्यादेवियों एवं यक्ष-यक्षियों के कुछ नाम जैसे अम्बिका, चक्रेश्वरी, काली, महाकाली, गौरी, गंधारी आदि को छोड़कर उपास्य के नाम तो जैन परम्परा के अपने है, किन्तु मन्त्र रचना में जो ॐ ह्रीं क्रीं आदि बीजाक्षर तथा टिरि, किरि, वग्गु वग्गु, फग्गु फग्गु आदि पद अन्य तान्त्रिक परम्पराओं से ही जैनाचार्यों ने गृहीत किये हैं। हाँ इतना अवश्य है कि उनकी योजना जैनाचार्यों अपनी परम्परा के अनुसार की है । किस मन्त्र का किस विधि से कितना जप करना चाहिए इसका विधान भी जैन आचार्यों ने अपने स्वविवेक से किया है- यद्यपि इस विधान - निर्धारण में वे हिन्दू तान्त्रिक परम्पराओं से प्रभावित अवश्य हुए हैं। किस प्रयोजन से किस मन्त्र का किस विधि-विधान से कितनी संख्या में जप करना चाहिए इन सबकी चर्चा मन्त्रों के प्रसंग में की जा चुकी है अतः यहाँ उनकी पुनरावृत्ति अपेक्षित नहीं है। प्रयोजनों के आधार पर मन्त्र-साधना में वस्त्र, माला आसन, आदि किस वस्तु के और किस रंग के हो इसका निर्धारण भी जैनाचार्यों ने अपने ढंग से किया है किन्तु इस सम्बन्ध में वे अन्य तान्त्रिक परम्पराओं से प्रभावित अवश्य रहे । पञ्चपरमेष्ठि, नवपद, चौबीस तीर्थंकर आदि के वर्णों की कल्पना जैनों की अपनी है किन्तु इस कल्पना के मूल में तन्त्र के प्रभाव को रेखांकित अवश्य किया जा सकता है।
जप के प्रकार
हिन्दू तान्त्रिक परम्परा में जप के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख अनेक दृष्टिकोणों से किया गया है। जैसे नित्य जप और नैमित्तिकजप, सकामजप और निष्कामजप, विहितजप और निषिद्धजप, चलजप और अचलजप, प्रदक्षिणाजप और स्थिरासनजप, भ्रमरजप और अखण्डजप, प्रायश्चित्तजप और अप्रायश्चित्त जपमानसिक जप, और वोचिकजप उपांशुजप और अजपाजप आदि । जहाँ तक जैन परम्परा में जप के इन विविध प्रकारों की मान्यता का प्रश्न है, इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो उन्हें अमान्य हो, फिर भी जैन ग्रन्थों में मुझे इस प्रकार के वर्गीकरण देखने को नहीं मिले। मात्र एक सन्दर्भ श्री रत्नशेखरसूरि विरचित श्राद्धविधि प्रकरण का मिलता है, जिसे नमस्कार स्वाध्याय
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