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१७४ जैनधर्म और तांत्रिक साधना नामक ग्रन्थ (पृ०३१८) से उद्धृत किया गया है। उनके अनुसार जप के तीन प्रकार है-१ सशब्दजप २ मौनजप और ३ मानसजप इनमें सशब्द जप की अपेक्षा मौनजप और मौन जप की अपेक्षा मानसजप श्रेष्ठ माना गया है। उन्होंने अपने मत की पुष्टि हेतु पादलिप्तसूरिकृत, प्रतिष्ठापद्धति का सन्दर्भ भी दिया है। पादलिप्तसूरि के अनुसार जप तीन प्रकार का है- (१) मानस (२) उपांशु और (३) भाष्य। (१) मानसजप
जिस जप में मात्र मन की प्रवृत्ति हो, वचन व्यापार और कायिक व्यापार निवृत्त हो गया हो तथा जो जप मात्र स्वसंवैद्य हो वह मानस जप है। (२) उपांशुजप - जो जप दूसरों को सुनाई न दे, किन्तु अन्तर में सशब्द (सजल्प) हो वह उपांशु जप है। (३) भाष्यजप
जो जप सशब्द हो और दूसरे को सुनाई दे, वह भाष्य जप है।
पादलिप्तसूरि ने इन तीनों जपों को यथाक्रम उत्तम, मध्यम और अधम माना है। इन तीनों को क्रमशः मानसिक, कायिक और वाचिक भी कहा है। मानसजप मानसिक जप है, उपांशु जप कायिक जप है और वाचिक जप ही भाष्य (श्रूयमाण) जप है। वे प्रतिष्ठापद्धति में लिखते हैं
"जापस्त्रिविधे मानसोपांशुभाष्यभेदात् तत्र मानसो मनोमात्रप्रवृत्तिनिर्वृत्तः स्वसंवेद्यः, उपांशुस्तु परैरश्रूयमाणेऽन्तः सञ्जल्परूपः, यस्तु परैः श्रूयते स भाष्यः. अयं यथाक्रममुत्तममध्यमाधमसिद्धिषु शान्तिपुष्ट्यभिचारादिरूपासु नियोज्यः, मानसस्य प्रयत्नसाध्यत्वाद् भाष्यस्याधमसिद्धिफलत्वादुपांशुः साधारणत्वात्प्रयोज्यः इति। स्तोत्रपाठ, जप, ध्यान आदि का पारस्परिक सम्बन्ध
जैन आचार्यों ने पजा, स्तोत्रपाठ (गुणसंकीर्तन), जप, ध्यानादि के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि
पूजाकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमोजपः। जपकोटिसमं ध्यानं ध्यान कोटिसमो लयः ।।
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