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१७५ स्तोत्रपाठ, नामजप एवं मंत्रजप -उद्धृत श्राद्धविधिप्रकरण (रत्नशेखरसूरि १५वीं शती) पृ० ८६
स्तोत्र पाठ करोड़ पूजा के समकक्ष होता है, जप करोड़ स्तोत्रपाठ के समकक्ष होता है, ध्यान करोड़ जप से भी श्रेयस्कर है और लय अर्थात् निर्विकल्प समाधि तो करोड़ ध्यान से भी श्रेष्ठ है।
पूजा, स्तोत्र पाठ, जप और ध्यान की क्रमिक श्रेष्ठता के संबंध में जैन आचार्यों के इस दृष्टिकोण से यह फलित होता है कि उनका मुख्य उद्देश्य तो चित्त को विकल्प रहित या तनाव रहित बनाना ही है। जो साधन चित्त को जितना अधिक निर्विकल्प या तनाव मुक्त बनाने में समर्थ हो उसे उतना ही श्रेष्ठ माना गया है। यद्यपि जैन परम्परा में स्तोत्र पाठ जप, ध्यान आदि की श्रेष्ठता और कनिष्ठता का विचार किया गया है किन्तु साधना के क्षेत्र में जप और ध्यान क्षेत्रों का सम्बन्ध मानसिक एकाग्रता से है। यह एकाग्रता सदैव समानरूप से नहीं रह सकती। इसीलिए जिस समय जिस प्रकार की मानसिक एकाग्रता की स्थिति हो उसी के अनुसार साधना करनी चाहिए क्योंकि ध्यान की अपेक्षा जप में और जप की अपेक्षा स्तोत्रपाठ में एकाग्रता लाना सहज होता है। इसीलिए जैन आचार्यों ने यह माना है कि यदि चित्त जप और ध्यान से श्रान्त हो गया हो तो स्तोत्र पाठ करना चाहिए। श्राद्धविधिप्रकरण में रत्नशेखरसूरि लिखते हैं
जपश्रान्तो विशेद् ध्यानं, ध्यानश्रान्तो विशेज्जपम्। द्वयश्रान्तः पठेत् स्तोत्रम्-, इत्येवं गुरुभिः स्मृतम् ।।२।।
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