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१४६ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना के पदों का प्रयोग विभिन्न मंत्रो के रूप में किया गया, उसी प्रकार इस शक्रस्तव (नमोत्थुण) का प्रयोग भी मन्त्र रूप में हुआ है। मूलतः तो यह शक्रस्तव प्राकृत भाषा में निबद्ध है और भगवती, आवश्यकसूत्र आदि आगमों में मिलता है। मान्त्रिक रूप में जिस शक्रस्तव का प्रयोग किया जाता है वह प्राकृत शक्रस्तव का संस्कृत रूपान्तरण तो है ही किन्तु उसकी अपेक्षा पर्याप्त विकसित है। नमस्कारस्वाध्याय नामक ग्रन्थ में इसे सिद्धसेन दिवाकर विरचित कहा गया है किन्तु यह उनकी रचना न होकर वस्तुतः सिद्धर्षि (६वीं शती) की रचना है इसकी प्रशस्ति में उनका नाम दिया गया है (सिद्धर्षि सद्धर्ममयस्त्वमेव) मूल प्राकृत शक्रस्तव की टीका हरिभद्र (८वीं शती) ने ललितविस्तर के नाम से लिखी है उसमें शक्रस्तव (नमोत्थुण) में आये हुए अर्हन्त के विशेषणों या गुणों की व्याख्या है। यह मंत्र रूप शक्रस्तव उसकी अपेक्षा भी इस अर्थ में विलक्षण है कि इसमें हिन्दू परम्परा में प्रचलित अनेक नाम मुकुन्द, गोविन्द, अच्युत, श्रीपति, विश्वरूप, हृषीकेश, जगन्नाथ आदि भी आ गये हैं-१ पाठकों की जानकारी के लिए यह शक्रस्तव नीचे दिया जा रहा है
श्रीसिद्धर्षि विरचितः शक्रस्तवः ॐ नमोऽर्हतें भगवते परमात्मने परमज्योतिषे परमपरमेष्ठिने परमवेधसे पर मयो गिने परमेश्वराय तमसःपरस्तात् यदो दितादित्यवर्णा य समूलोन्मूलतितानादिसकलक्लेशाय ।।१।।
__ ॐ नमोऽर्हते भूर्भुवःस्वस्रयीनाथमौलिमन्दारमालार्चितक्रमाय सकलपुरुषार्थयोनिनिरवद्यविद्याप्रवर्तनैकवीराय नमःस्वस्तिस्वधास्वाहावषडथै कान्तशान्तमूर्तये भवभाविभूतभावावभासिनी कालपाशनाशिने सत्त्वरजस्तमोगुणातीताय अनन्तगुणाय वाड्.मनोऽगोचरचरित्राय पवित्राय करणकारणाय तरणतारणाय सात्त्विकजीविताय निर्ग्रन्थपरमब्रह्महृदयाय योगीन्द्र प्राणनाथाय त्रिभुवनभव्य कुल नित्योत्सवाय विज्ञानानन्दपरब्रह्मैकात्म्यसात्म्यसमाधये हरिहरहिरणयगर्भादिदेवतापरिकलितस्वरूपाय सम्यश्रद्धेयाय सम्यग्ध्येयाय सम्यकशरणयाय सुसमाहितसम्यक्पृहणीयाय ।।२।।
ॐ नमोऽर्हते भगवते आदिकराय तीर्थंड.कराय स्वयंसम्बुद्धाय पुरुषोत्तमाय पुरुषसिंहाय पुरुषवरपुण्डरीकाय पुरुषवरगन्धहस्तिने लोकोत्तमाय लोकनाथाय लोकहिताय लोकप्रदीपाय लोकप्रद्योतकारिणे अभयदाय दृष्टिदाय मुक्तिदाय मार्गदाय बोधिदाय जीवदाय शरणदाय धर्मदाय धर्मदेशकाय धर्मनायकाय धर्मसारथये धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिने व्यावृत्तच्छद्मने
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