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१५६ जैन धर्म और तांत्रिक साधना में सूर्याभदेव के द्वारा जिनपूजा के प्रसंग में ललित पद्यों के द्वारा जिनस्तुति करने के उल्लेख भी मिलते हैं। जैन परम्परा के षडावश्यकों में द्वितीय आवश्यक स्तुति है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि हठयोग के धौति, नेति आदि षट्कर्मों और तन्त्र के मारण आदि षट्कर्मों की अपेक्षा जैनों में जो षडावश्यकों की परम्परा है, वह प्राचीन और उनकी अपनी मौलिक है। साथ ही यह भी सत्य है कि जैन परम्परा में भक्ति तत्त्व का बीजवपन इन्हीं स्तुतियों के द्वारा हुआ है।
स्तुति, नामस्मरण और मंत्र जप में चाहे बाह्य रूप में समानता प्रतीत होती हो, किन्तु उनमें एक महत्त्वपूर्ण अन्तर भी है। स्तवन (गुणसंकीर्तन) और नामस्मरण (नामसंकीर्तन) सकाम और निष्काम दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। जबकि मंत्र जप सकाम या सप्रयोजन ही किया जाता है । जहाँ तक निष्काम स्तुति या गुण संकीर्तन का प्रश्न है उसका मुख्य प्रयोजन मात्र आत्मविशुद्धि ही होता है। जैन परम्परा में वीरस्तुति आदि जो प्राचीन स्तर की स्तुतियाँ उपलब्ध हैं, उनमें अर्हत् या तीर्थंकर के गुणों का निर्देश तो है किन्तु उनमें साधक प्रभु से कोई याचना नहीं करता है। वीरस्तुति एवं शक्रस्तव में हम याचना के तत्त्व का पूर्ण अभाव देखते हैं। जैन स्तुतियों में चतुर्विंशति जिनस्तव (लोगस्स) में ही सर्वप्रथम याचना का स्वर मुखरित हुआ है, किन्तु उसमें साधक प्रभु से आरोग्य, बोधि, समाधि और मुक्ति की ही कामना करता है। आरोग्य भी इसलिए कि साधना निर्विघ्न सम्पन्न हो। इस दृष्टि से उसमें याचना का तत्त्व होते हुए भी जैन-परम्परा के निवृत्तिमार्गी आध्यात्मिक दृष्टिकोण को पूर्णतः सुरक्षित रखा गया है। साधक प्रभु की स्तुति तो करता है, लेकिन उससे प्रतिफल के रूप में कोई भी लौकिक अपेक्षा नहीं रखता है। आचार्य समन्तभद्र (लगभग छठी शती) ने स्पष्ट रूप से कहा है
न पूजयार्थस्त्वयिवीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे।
तथापि तव पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चेतो दुरिताञ्जनेभ्यः ।।
हे प्रभु! मैं यह जानता हूं कि स्तुति से आप प्रसन्न होने वाले नहीं हैं, क्योंकि आप वीतराग हैं। यदि आपकी निन्दा भी करूं तो आप रुष्ट भी नहीं होने वाले हैं क्योंकि आप विवान्तवैर हैं। मैं तो आपके पुण्य गुणों का स्मरण केवल इसलिए करना चाहता हूं कि मेरा चित्त दुष्कर्मों और अशुभ वृत्तियों से दूर होकर पवित्र बने।
जैनपरम्परा में स्तुति और नामस्मरण का जो भी महत्त्व या मूल्य है वह केवल अपने आध्यात्मिक गुणों के विकास की दृष्टि से ही है। उसका उद्घोष है-'वन्देतद्गुणलब्धये'-अर्थात् प्रभु का वन्दन या स्तवन उनके समान गुणों को
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