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मंत्र साधना और जैनधर्म उन पर आंशिक रूप से संस्कृत का प्रभाव परिलक्षित होता है। जबकि ये तीसरे प्रकार के मंत्र संस्कृतनिष्ठ हैं और इनकी रचना शैली भी पूर्णतः तान्त्रिक परम्पराओं के अनुरूप है। वस्तुतः जैनों की वे तान्त्रिक साधनाएँ जो मुख्यतः व्यक्ति की भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के निमित्त की जाती हैं और जिनमें षट्कर्मों का जैन दृष्टि से आंशिक अनुमोदन है, इसी तीसरे वर्ग के मंत्रों से सम्पन्न की जाती हैं। इस प्रकार के मंत्रों के उदाहरण निम्न हैं
(अ) ऊँ अर्हन्मुखकमलवासिनि! पापात्मक्षयङ्करि! श्रुतज्ञानज्वालासहस्रप्रज्वलिते मत्पापं हन हन दह दह क्षाँ क्षीं क्षु क्षाँ क्षः क्षीर धवले । अमृतसंभवे! वं वं हुं हुं स्वाहा।
उपरोक्त मंत्र में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें उपास्य देवी से जो आकांक्षा है, वह मात्र अपने पापों के शमन की है । किन्तु इस वर्ग के अनेक मंत्र ऐसे भी हैं जिनमें भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति एवं शत्रु के विनाश की कामना भी की गई है । यथा
(१) ॐ नमो भगवति! अम्बिके! अम्बालिके । यक्षिदेवी! यूं यौं ब्लैं हस्वलीं ब्लूं हसौ र र र रां रां नित्य क्लिन्ने मदनद्रवे मदनातुरे! ह्रीं क्रों अमुकां वश्याकृष्टिं कुरु कुरु संवौषट् ।
-भैरवपद्मावतीकल्प (साराभाई नवाब अहमदाबाद) गुजराती अनुवाद पृ०-२०.
(२) ॐ नमो भगवती ! ह्रीं ह्रीं कुरु कुरु मम हृदयंकार्य कुरु कुरु मम सर्व स्त्री वश्यं कुरु कुरु मम सर्वभूतपिशाचप्रेतरोषं हर हर सर्वरोगान् छिन्द छिन्द...... मम दुष्टान् हन हन मंम सर्व कार्याणि साधय साधय हुं फट् स्वाहा ।
-अद्भुत पद्मावतीकल्प (भैरवपद्मावती कल्प के अन्तर्गत प्रकाशित) पृ०-३६.
इसी प्रकार ज्वालामालिनी मंत्रस्तोत्र आदि, जिनका विस्तृत विवरण. हम अध्ययन तीन में दे चुके हैं, में भी छेदन, भेदन, बंधन, ताड़न, ग्रसन, नाशन, दहन आदि की आकांक्षाएँ परिलक्षित होती हैं जो मूलतः जैन जीवन-दृष्टि के विरुद्ध है। फिर भी इतना तो अवश्य मानना होगा कि अन्य तान्त्रिक साधनापद्धतियों के प्रभाव के परिणामस्वरूप जैन मंत्र साधना में भी ऐसी अनेक बातें प्रविष्ट हो गईं, जो सिद्धान्ततः जैन परम्परा को मान्य नहीं हो सकती हैं। पुनः जैन मंत्रों में इन सबकी उपस्थिति यह अवश्य सूचित करती है कि परवर्तीकाल अर्थात् लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती में जैन धर्म पर तंत्र - परम्परा का व्यापक
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