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मंत्र साधना और जैनधर्म को सिद्ध कर शुक्लध्यान के पहले दो भेदों को धारण करता है, वह जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता, तब तक अनेक निम्न ऋद्धियों का पात्र बन जाता है
आमीषधित्वं विप्रडौषधित्वं सर्वौषधित्वं शापानुग्रहसामर्थ्यजननीमभिव्याहारसिद्धिमीशित्वं वशित्वमवधिज्ञानं शारीरविकरणाङ्गप्राप्ति. तामणिमानं लघिमानं महिमानमणुत्वम् अणिमा विसच्छिद्रमपि प्रविश्यासीतां। लघुत्वं नाम लघिमा वायोरपि लघुतरः स्यात्। महत्त्वं महिमा मेरोरपि महत्तरं शरीरं विकुर्वित । प्राप्तिर्भूमिष्ठोऽगुल्यग्रेण मेरुशिखर भास्करादीनपि स्पृशेत्। प्राकाम्यमप्सु भूमाविव गच्छेत् भूमावप्स्यिव निमज्जेदुन्मज्जेच्च । जङ्घाचारणत्वं येनाग्निशिखाधूमनीहारावश्यायमेघवारिधारामर्कटतन्तुज्योतिष्करश्मिवायू नामन्यतममप्युदाय वियति गच्छेत्। वियद्गतिचारणत्वं येन वियति भूमाविव गच्छेत् शकुनिवच्च प्रडीनावडीनगमनानि कुर्यात् । अप्रतिघातित्वं पर्वतमध्येन वियतीव गच्छेत् । अन्तर्धीनमदृश्यो भवेत्। कामरूपित्वं नानाश्रयानेकरूपधारणं युगपदपि कुर्यात् तेजोनिसर्गसामर्थ्यमित्येतदादि। इति इन्द्रियेषु मतिज्ञानविशुद्धिविशेषाद्दूरत्स्पार्शनास्वादनघ्राणदर्शनश्रवणानि विषयाणां कुर्यात्। संभिन्नज्ञानत्वं युगपदनेकविषयपरिज्ञानमित्येतदादि। मानसं कोष्ठबुद्धित्वं बीजबुद्धित्वं पदप्रकरणोद्देशाध्यायप्राभृतवस्तुपूर्वाङ्गानुसारित्वम्जुमतित्वं विपुलमतित्वं परचित्तज्ञानमभिलषितार्थप्राप्तिमनिष्टानवाप्तीत्येतदादि । वाचिकं क्षीरसवित्वं मध्वास्रवित्वं वादित्वं सर्वरुतज्ञत्वं सर्वसत्त्वावबोधनमित्येतदादि। तथा विद्याधरत्वमाशीविषत्वं भिन्नाभिन्नाक्षरचतुर्दशपूर्वधरत्वामिति।।
अर्थात-आमीषधित्व, विप्रडौषधित्व, सर्वौषधित्व, शाप और अनुग्रहकी सामर्थ्य उत्पन्न करनेवाली वचनसिद्धि, ईशित्व, वशित्व, अवधिज्ञान, शारीरविकरण, अङ्गप्राप्तिता, अणिमा, लघिमा, और महिमा ये सब ऋद्धियाँ हैं, जिनको कि उक्त मोक्ष-मार्ग का साधक प्राप्त हुआ करता है।
अणिमा शब्द का अर्थ अणुत्व है अर्थात् छोटापन। इस ऋद्धि के द्वारा अपने शरीर को इतना बनाया जा सकता है कि वह कमल-तन्तु के छिद्र में भी प्रवेश करके स्थित हो सकता है। लघिमा शब्द का अर्थ लघुत्व है अर्थात् हलकापन। इसके सामर्थ्य से शरीर को वायु से भी हलका बनाया जा सकता है, महिमा शब्द का अर्थ महत्त्व–अर्थात् भारीपन अथवा बड़ापन है। जिसके सामर्थ्य से शरीर को मेरु पर्वत से भी बड़ा किया जा सके, उसको महिमा-ऋद्धि कहते हैं। प्राप्ति नाम स्पर्श संयोग का है, जिसके द्वारा दूरवर्ती पदार्थ का भी स्पर्श किया जा सकता है। इस ऋद्धि के बल से भूमि पर बैठा हुआ ही साधु अपनी अंगुली के अग्रभाग से मेरुपर्वत के शिखर का अथवा सूर्य-बिम्ब का स्पर्श
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