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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना ६८ जैनपूजा विधान की आध्यात्मिक प्रकृति
यह सत्य है कि जैन पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठानों पर भक्तिमार्ग एवं तन्त्र साधना का व्यापक प्रभाव है और उनमें अनेक स्तरों पर समरूपताएँ भी हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि इन पूजा विधानों में भी जैनों की आध्यात्मिक जीवन शैली स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, क्योंकि उनका प्रयोजन भिन्न है। यह उनमें बोले जाने वाले मंत्रों से स्पष्ट हो जाता है
"ऊँ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्त्ये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमदजिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा।"
इसी प्रकार चन्दन आदि के समर्पण के समय जल के स्थान पर चन्दन आदि शब्द बोले जाते हैं, शेष मंत्र वहीं रहता है, किन्तु पूजा के प्रयोजनभेद से इसका स्वरूप बदलता भी है। जैसेः
ॐ हीं अहँ परमात्मने अन्तरायकर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा।
ऊँ ह्रीं अर्जी परमात्मने अनन्तान्तज्ञानशक्तये श्री समकितव्रतदृढ करणाय/प्राणातिपातविरमणव्रतग्रहणाय जलं यजामहे स्वाहा।
इसीप्रकार अष्टद्रव्यों के समर्पण में भी प्रयोजन की भिन्नता परिलक्षित होती है:
ॐ हीं श्री जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशाय जलं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ हीं श्री जिनेन्द्राय भवतापविनाशाय चंदनं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ हीं श्री जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ हीं श्री जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ हीं श्री जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ हीं श्री जिनेन्द्राय अपृकर्मदहनाय धूपं निर्वापमिति स्वाहा । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तेये फलं निर्वापमिति स्वाहा।
इन पूजा मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा से इन सभी पूजा में विधानों का अन्तिम प्रयोजन तो आध्यात्मिक विशुद्धि ही माना गया है। यह माना गया है कि जलपूजा आत्मविशुद्धि के लिए की जाती है। चन्दनपूजा का प्रयोजन कषायरूपी अग्नि को शान्त करना अथवा समभाव में अवस्थित होना
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