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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना
मन्त्र जैनदर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं। क्योंकि जहाँ ब्राह्मण परम्परा का यह विश्वास है कि आहान करने पर देवता आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं । वहाँ जैन परम्परा में सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थंकर या सिद्ध न तो आह्वान करने पर उपस्थित हो सकते हैं और न विसर्जन करने पर जाते ही हैं। पं० फूलचन्दजी ने 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' नामक पुस्तक की भूमिका में विस्तार से इसकी समीक्षा की है तथा आह्वान एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन पूजा - मन्त्रों को ब्राह्मण मन्त्रों का अनुकरण माना है । तुलना कीजिए
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आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् । विसर्जनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर । । १ । । मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्वं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।।२ ।। - विसर्जनपाठ |
इनके स्थान पर हिन्दूधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैंआवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वरम । । १ । । मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन ।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ।।२।।
इसी प्रकार अष्टद्रव्यपूजा एवं सत्रह भेदी पूजा में सचित्त द्रव्यों का उपयोग, प्रभु को वस्त्राभूषण, गंध, माल्य, आदि का समर्पण; यज्ञ का विधान, विनायकयन्त्र स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन परम्परा के अनुकूल नहीं है । इधर जब तान्त्रिक साधना का प्रभाव बढ़ने लगा, तो उसमें भी इनपूजा विधियों का प्रवेश हुआ । दसवीं शती के अनन्तर इन विधि-विधानों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ, फलतः पूर्व प्रचलित आध्यात्मिक उपासना गौण हो गयी । प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आह्वान, स्थापन, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन क्रमशः पंचकल्याणकों की स्मृति के लिए व्यवहृत होने लगे। पूजा को वैयावृत्य का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे 'आहारदान' के तुल्य स्थान प्राप्त हुआ । पूजा के समय सामायिक या ध्यान की मूलभावना में परिवर्तन हुआ । द्रव्यपूजा को अतिथिसंविभाग व्रत का अंग मान लिया गया। उसे गृहस्थ का एक अनिवार्य कर्तव्य बताया गया । यह भी हिन्दू परम्परा की अनुकृति ही थी । जहाँ यह माना जाता हो कि तीर्थंकरों ने दीक्षा के समय सचित्तद्रव्यों, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गंध, माल्य आदि का त्याग कर दिया था, मात्र यही नहीं जिस जैन परम्परा में एक वर्ग ऐसा भी हो जो तीर्थंकर के कवलाहार का भी निषेध करता हो, वही
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