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६५ पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान को जैनपरम्परा में स्थान मिला। इन सबकी पूजा के लिए जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को किंचित् परिवर्तन के साथ हिन्दू तांत्रिक परम्परा से ग्रहण कर लिया । भैरवपद्मावतीकल्प आदि ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जैनपूजा और प्रतिष्ठा की विधि में तान्त्रिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन परम्परा के मूलभूत मन्तव्यों से भिन्न हैं। हम यह देखते हैं कि तन्त्र के प्रभाव से जैन परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा भैरव, भूमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आदि की उपासना प्रमुख और तीर्थंकरों की उपासना गौण होती गई। हमें अनेक ऐसे पुरातत्त्वीय साक्ष्य मिलते हैं जिनके अनुसार जिनमन्दिरों में इन देवियों की स्थापना होने लगी थी। जैन अनुष्ठानों का एक प्रमुख ग्रन्थ 'भैरवपद्मावतीकल्प है, जो मुख्यतया वैयक्तिक जीवन की विघ्न-बाधाओं के उपशमन और भौतिक उपलब्धियों के लिए विविध अनुष्ठानों का प्रतिपादन करता है। इस ग्रन्थ में वर्णित अनुष्ठानों पर जैनेतर तन्त्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है जिसकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है।
ईस्वी छठी शती से लेकर आज तक जैन परम्परा के अनेक आचार्य भी शासनदेवियों, क्षेत्रपालों और यक्षों की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील देखे जाते हैं और अपने अनुयायियों को भी ऐसे अनुष्ठानों के लिए प्रेरित करते रहे हैं। जैनधर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा पक्ष जो हमारे सामने आया, वह मूलतः तान्त्रिक परम्परा का प्रभाव ही है। जिनपूजा एवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं, जिन्हें ब्राह्मण परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में इष्ट देवता की पूजा के समय उसका आहान, स्थापन, विसर्जन आदि किया जाता है उसी प्रकार जैन परम्परा में भी पूजा के समय जिन के आहान और विसर्जन के मन्त्र बोले जाते हैं- यथा
___ॐ हीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवौषट् -आहानम्
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः -स्थापनम्
ॐ हीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट्-सन्निधायनम्
__ ॐ हीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ जः जः जः विसर्जनम्।
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