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६३ पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान नामक कृति भी लगभग इन्हीं विषयों का विवेचन करती है। जैन कर्मकाण्डों का विवेचन करने वाले अन्य ग्रन्थों में सोमसुन्दरसूरि का 'समाचारी शतक', जिनप्रभसूरि (वि०सं० १३६३) की विधिमार्गप्रपा, वर्धमानसूरि का आचारदिनकर', हर्षभूषणगणि (वि०सं० १४८०) का श्राद्धविधिविनिश्चय' तथा समयसुन्दर का "समाचारीशतक भी महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त प्रतिष्ठाकल्प के नाम से अनेक लेखकों की कृतियाँ हैं- जिनमें जैन परंपरा के अनुष्ठानों की चर्चा है। दिगम्बर परंपरा में धार्मिक क्रियाकाण्डों को लेकर वसुनन्दि का प्रतिष्ठासारसंग्रह' (वि०सं० ११५०),आशाधर का 'जिनयज्ञकल्प' (सं० १२८५) एवं महाभिषेककल्प, सुमति-- सागर का 'दसलाक्षणिकव्रतोद्यापन, सिंहनन्दी का 'व्रततिथिनिर्णय', जयसागर का रविव्रतोद्यापन', ब्रह्मजिनदास का 'जम्बूद्वीपपूजन', 'अनन्तव्रतपूजन, 'मेघमालोद्यापनपूजन' (१५वीं शती), विश्वसेन का षण्नवतिक्षेत्रपाल पूजन (१६वीं शती), विद्याभूषण के 'ऋषिमण्डलपूजन, बृहत्कलिकुण्डपूजन और सिद्धचक्रपूजन (१७वीं शती), बुधवीरु 'धर्मचक्रपूजन' एवं 'बृहद्धर्मचक्रपूजन' (१६वीं शती), सकलकीर्ति के 'पंचपरमेष्ठिपूजन', 'षोडशकारणपूजन एवं 'गणधरवलयपूजन (१६ वीं शती) श्रीभूषण का षोडशसागारव्रतोद्यापन', नागनन्दि का प्रतिष्ठाकल्प' आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं।
जैन पूजा-अनुष्ठानों पर तंत्र का प्रभाव
जैन अनुष्ठानों का उद्देश्य तो लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न-बाधाओं का उपशमन न होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मि विकास ही है। जैन साधक स्पष्ट रूप से इस बात को दृष्टि में रखता है कि प्रभु की पूजा और स्तुति केवल भक्त के स्वस्वरूप या जिनगुणों की उपलब्धि के लिए है। आचार्य समन्तभद्र स्पष्टरूप से कहते हैं कि हे नाथ! चूंकि आप वीतराग हैं, अतः आप अपनी पूजा या स्तुति से प्रसन्न होने वाले नहीं हैं और आप विवान्तवैर हैं इसलिए निन्दा करने पर भी आप अप्रसन्न होने वाले नहीं हैं। आपकी स्तुति का मेरा उद्देश्य तो केवल अपने चित्तमल को दूर करना है
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ! विवान्तवैरे।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः, पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।। इसीप्रकार एक गुजराती जैन कवि कहता है
अजकुलगतकेशरि लहेरे निजपद सिंह निहाल । तिम प्रभुभक्ति भवि लहेरे निज आतम संभार।।
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