________________
६९ पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान है। पुष्पपूजा का प्रयोजन अन्तःकरण में सद्भावों का जागरण है । धूपपूजा कर्मरूपी इन्धन को जलाने के लिये है, तो दीपपूजा का प्रयोजन ज्ञान के प्रकाश को प्रकट करना है । अक्षत पूजा का तात्पर्य अक्षतों के समान कर्म के आवरण से रहित अर्थात् निरावरण होकर अक्षय पद प्राप्त करना है। नैवेद्य पूजा का तात्पर्य चित्त
आकांक्षाओं और इच्छाओं की समाप्ति हैं । इसी प्रकार फल पूजा मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये की जाती है। इस प्रकार जैन पूजा की विधि में और हिन्दूभक्तिमार्गीय और तांत्रिक पूजा विधियों में बहुत कुछ समरूपता होते हुए भी उनके प्रयोजन भिन्न रूप में माने गये हैं। जहां समान्यतया हिन्दू एवं तांत्रिक पूजा विधियों का प्रयोजन इष्टदेवता को प्रसन्न कर उसकी कृपा से अपने लौकिक संकटों का निराकरण करना रहा है। वहां जैन पूजा-विधानों का प्रयोजन जन्म-मरण रूप संसार से विमुक्ति ही रहा। दूसरे, इनमें पूज्य से कृपा की कोई आकांक्षा भी नहीं होती है मात्र अपनी आत्मविशुद्धि की आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि दैवीयकृपा ( grace of God) का सिद्धान्त जैनों के कर्म सिद्धान्त के विरोध में जाता है ।
जैन
पूजा विधान और लौकिक एवं भौतिक मंगल की कामना
यहाँ भी ज्ञातव्य है कि तीर्थंकरों की पूजा-उपासना में तो यह आत्मविशुद्धि प्रधान जीवनदृष्टि कायम रही, किन्तु जिनशासन के रक्षक देवों की पूजा-उपासना में लौकिकमंगल और भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना किसी न किसी रूप में जैनों में भी आ गई। इस कथन की पुष्टि भैरवपद्मावतीकल्प में पद्मावतीस्तोत्र के निम्न मन्त्र से होती है
विविधदुःखविनाशी दुष्टदारिद्रयपाशी
कलिमलभवक्षाली भव्यजीवकृपाली ।
असुरमदनिवासी देवनागेन्द्रनारी
जिनमुनिपदसेव्यं ब्रह्मपुण्याब्धिपूज्यम् ।।११।।
ॐ आँ क्रौं ह्रीं मन्त्ररूपायै विश्वविघ्नहरणायै सकलजनहितकारिकायै श्री पद्मावत्यै जयमालार्थं निर्वापामीति स्वाहा । लक्ष्मीसौभाग्यकरा जगत्सुखकरा वन्ध्यापि पुत्रार्पिता नानारोगविनाशिनी अघहरा (त्रि) कृपाजने रक्षिका । रङ्कानां धनदायिका सुफलदा वाञ्छार्थिचिन्तामणिः त्रैलोक्याधिपतिर्भवार्णवत्राता पद्मावती पातु वः ।।१२।।
इत्याशीर्वादः
स्वस्तिकल्याणभद्रस्तु क्षेमकल्याणमस्तु वः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org