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५९ पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान की स्तुति करके फिर जिनमंदिर के मध्य भाग में आया। उसे प्रमार्जित कर दिव्य जलधारा से सिंचित किया और गोशीर्ष चंदन का लेप किया तथा पुष्पसमूहों की वर्षा की । तत्पश्चात् उसी प्रकार उसने मयूरपिच्छि से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्यालों को प्रमार्जित किया तथा उनका प्रक्षालन कर उनकों चंदन से अर्चित किया तथा धूपक्षेप करके पुष्प एवं आभूषण चढ़ाये। इसी प्रकार उसने मणिपीठिकाओं एवं उनकी जिनप्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की तथा महेन्द्र ध्वजा की पूजा-अर्चना की। इससे स्पष्ट है कि राजप्रश्नीय के काल में पूजा सम्बन्धी मन्त्रों के अतिरिक्त जिनपूजा की एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया निर्मित हो चुकी थी। लगभग ऐसा ही विवरण वरांगचरित के २३वे सर्ग में भी है।
जैन एवं तान्त्रिक पूजा-विधानों की तुलना
इष्ट देवता की पूजा भक्तिमार्गीय एवं तांत्रिक साधना का भी आवश्यक अंग हैं। इन सम्प्रदायों में सामान्यतया पूजा के तीन रूप प्रचलित रहे हैं
१. पञ्चोपचार पूजा, २. दशोपचार पूजा और ३. षोडशोपचार पूजा।
पञ्चोपचार पूजा में गंध पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य ये पांच वस्तुएं देवता को समर्पित की जाती हैं। दशोपचार पूजा में पादप्रक्षालन, अर्घ्यसमर्पण, आचमन, मधुपर्क, जल, गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्यसमर्पण इन दस प्रक्रियाओं द्वारा पूजा विधि सम्पन्न की जाती है। इसी प्रकार षोडशोपचार पूजा में १. आह्वान, २. आसन-प्रदान ३, स्वागत, ४. पाद-प्रक्षालन, ५. आचमन, ६. अर्घ्य,७. मधुपर्क, ८. जल, ६. स्नान, १०, वस्त्र, ११. आभूषण, १२. गन्ध, १३. पुष्प, १४.धूप, १५ दीप और १६. नैवेद्य से पूजा की जाती है।
_प्रकारान्तर से गायत्रीतंत्र में षोडशोपचार पूजा के निम्न अंग भी मिलते हैं
१. आान, २. आसनप्रदान, ३. पादप्रक्षालन, ४. अर्घ्यसमर्पण,५. आचमन, ६. स्नान, ७. वस्त्रअर्पण, ८. लेपन, ६. यज्ञोपवीत, १०. पुष्प, ११. धूप, १२. दीप (आरती), १३. नैवेद्य-प्रसाद, १४. प्रदक्षिणा १५. मंत्रपुष्प और १६. शय्या।
षोडशोपचार पूजा की उक्त दोनों सूचियों में मात्र नाम और क्रम का आंशिक अन्तर है। इस पशोपचार, दञ्चोपचार और षोडशोपचार पूजा के स्थान पर जैनधर्म में अष्टप्रकारी और सत्रह भेदी पूजा प्रचलित रही है। पूजा विधान
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