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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना परम्परा में जहाँ कहीं दस दिक्पालों की अवधारणा उपलब्ध होती है वहाँ उसमें वासुकी को अधो दिशा का और ब्रह्म (सोम) को उर्ध्व दिशा का अधिनायक स्वीकार किया गया है। जैन परम्परा से इसकी तुलना करने पर प्रायः समानता ही पायी जाती है।
जैन परम्परा में अष्ट या दस दिक्पालों की अवधारणा कब आयी, यह निश्चित रूप से कह पाना तो कठिन है, किन्तु इन अष्ट दिक्पालों में से सोम, यम, वरुण और वैश्रमण (कुबेर) इन चार का उल्लेख सर्वप्रथम अर्हत् ऋषि के रूप में ऋषिभाषित सूत्र (ई० पू० चतुर्थ शती) में मिलता है। आगे चलकर यही नाम पहले लोकपालों की सूची में और फिर दिक्पालों की सूची में सम्मिलित किये गये। इन्द्र का उल्लेख तो भगवतीसूत्र कल्पसूत्र, आदि आगमों एवं पउमचरिय जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है। यद्यपि इन ग्रन्थों में इन्द्र को जिनों के सेवक के रूप में ही उपस्थित किया गया है। ईशान को भी जैन परम्परा में इन्द्र के रूप में ही मान्यता प्राप्त है। इसी प्रकार कुबेर और ब्रह्मा की स्वीकृति सर्वानुभूति यक्ष और ब्रह्मशांति यक्ष के रूप में मिलती है।
दिक्पाल अर्चाः
क्योंकि दिक्पालों के उल्लेख जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होते है अथवा उनके अंकन जैन मंदिरों में मिलते है, केवल इसी आधार पर उन्हें जैन देव मण्डल का सदस्य नहीं माना जा सकता है, अपितु उन्हें इसलिए जैन देव मण्डल का सदस्य माना जाता है कि तीर्थंकरों और यक्ष यक्षियों के पूजा विधानों के साथ-साथ प्रतिष्ठातिलक आदि ग्रन्थो में उनके पूजा सम्बन्धी विधान भी मिलते हैं। इन पूजा विधानों में भी जिन पूजा विधान के समान ही आहान, स्थापना, सन्निधिकरण पूजन और विसर्जन के साथ-साथ अष्टद्रव्यों से पूजा के भी उल्लेख हैं। उस पूजा के आहुतिमंत्र इसप्रकार हैं- आँ क्रों ही इंद्राय स्वाहा । ॐ आँ अग्नये स्वाहा। ॐ आँ यमाय स्वाहा । ॐ आँ नैऋत्याय स्वाहा । ॐ आँ वरुणाय स्वाहा । ॐ आँ पवनाथ स्वाहा । ॐ आँ धनदाय स्वाहा । ॐ आँ ईशानाम स्वाहा । ॐ आँ धरणेन्द्राय स्वाहा । ॐ आँ सोमाय स्वाहा।। इत्याहुतयः ।।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जैन परम्पराओं में दिक्पाल अर्चा हिन्दू तान्त्रिक परम्परा के समरूप है और उससे प्रभावित भी है। क्योंकि जैन परम्परा में दिक्पाल अर्चा के जो भी उल्लेख हैं वे सभी दसवीं शती के पश्चात् के ही
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