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लिखने का कोई असर नहीं मिल सका । मैं उस वक्त से बराबर ही दूसरे ज़रूरी कामों से घिरा रहा हूँ। आज भी मेरे पास, यद्यपि इसके लिये काफी समय नहीं है--- दूसरे अधिक बरूरी कामों का ढेर का ढेर सामने पड़ा हुवा है और उसकी चिंता हृदय को व्यथित कर रही हैपरंतु कुछ अर्से से कई मित्रों का यह लगातार भाग्रह चल रहा है कि इस विचार की शीघ्र परीक्षा कीजाय । वे आज कल इसकी परीक्षा को खास तौर से आवश्यक महसूस कर रहे हैं और इसलिये श्राज इसी का त्रिचित् प्रयत्न किया जाता है।
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इस त्रिवर्णाचारका दूसरा नाम 'धर्म रसिक' ग्रंथ भी है और यह तेरह अध्यायों में विभाजित है। इसके कर्ता सोमसेन, यद्यपि, अनेक पथों में अपने को 'मुनि', 'गणी' और 'मुनीन्द्र' तक लिखते है परन्तु वे वास्तव में उन आधुनिक महारकों में से थे जिन्हें शिपिसा चारी और परिप्रहधारी साधु अथवा श्रमणांमास कहते हैं। और इसलिये उनके विषय में बिना किसी संदेह के यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे पूर्णरूप से श्रावक की ७ वीं प्रतिमा के भी धारक थे। उन्होंने अपने को पुष्कर छ के भट्टारक गुणमद्रसूरिका पट्टशिष्य लिखा है और साथ ही महेन्द्रकीर्ति गुरु का जिस रूप से, उन किया है उससे यह जान पड़ता है कि वे इनके विद्या गुरु थे | भट्टारक सोमसेनजी कब हुए हैं और उन्होंने किस सन् सम्बत् में इस ग्रंथ की रचना की है, इसका अनुसन्धान करने के लिये कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। स्वयं महारकजी ग्रंथ के प्रत में लिखते हैं
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* यथाः
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... श्रीभट्टारक सोमसेन मुनिभिः
॥२- ११५ ॥
श्रीमहारक सोमसेन मसिना ।। ४-२१७ ॥ * पुण्यान्तिः सोमसेनैमुनीन्द्रैः ॥६- २१८ ॥
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