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तृष्णा की जड़
ऐसा जीसस के साथ हुआ । जुदास जीसस का सबसे ज्ञानी शिष्य था, जिसने उनको तीस रुपए में बिकवाकर फांसी लगवा दी। वही एकमात्र सुशिक्षित था, बाकी सब अशिक्षित थे। कोई मछुआ था; कोई किसान था; कोई बागवान था; कोई लकड़हारा था। बाकी तो सब अशिक्षित थे । बारह शिष्यों में ग्यारह अशिक्षित, सामान्य, सीधे-सादे लोग थे । एक ही था पढ़ा-लिखा । एक ही था पंडित । वही धोखा दे गया
पंडित सदा धोखा दे जाता है। क्योंकि पंडित को जल्दी ही, देर-अबेर यह अकड़ आनी शुरू होती है कि मैं भी तो जानता हूं। हालांकि पंडित जानता कुछ भी नहीं। उधार शब्द हैं उसके पास । अपना कोई अनुभव नहीं है । बुद्ध जो कहते हैं, पंडित भी वही कहेगा। दोनों एक ही शब्दों का उपयोग करते हैं । और यह भी हो सकता है कि पंडित बुद्ध से भी अच्छी तरह शब्द का उपयोग करे, और भी परिमार्जित शब्द का उपयोग करे, और भी तर्कनिष्ठ दर्शन का निर्माण करे।
लेकिन बुद्ध के पास अपना अनुभव है । वे जो कहते हैं, वह उनके अनुभव से उपजता है । और पंडित के पास अपना कोई अनुभव नहीं । शास्त्रों के अध्ययन, मनन से उपजता है। पंडित के पास जो है, उधार है । इस उधार से अकड़ पैदा होती है । जिसके भीतर अपना स्व-ज्ञान पैदा होता है, उसकी तो सब अकड़ खो जाती है। उस स्व-ज्ञान की अग्नि में सब अहंकार भस्मीभूत हो जाता है।
यह महापंडित था। बड़ा अभिमानी था। इसने अपने अभिमान में, ज्ञान की अकड़ में अपने गुरु काश्यप के साथ धोखा किया। उन्हें छोड़ा ही नहीं, वरन उनके विरोध में संलग्न हो गया। जो इसने बहुत दिनों तक एक बुद्धपुरुष का सत्संग किया और उनके चरणों में बैठा और उनकी छाया में चला, उसके फल से इसे स्वर्ण-वर्ण मिला है।
इसके अनजाने भी, इसके न चाहते हुए भी, कम से कम इसकी देह स्वर्ण की हो गयी। बुद्धों के पास कभी-कभी अनजाने भी...! तुम शायद इसलिए गए भी न थे। तुम किसी और कारण गए थे। लेकिन अगर पारस के पास संयोगवशात भी लोहा पहुंच जाए, तो सोना हो जाता है।
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ऐसे इसकी देह तो स्वर्णमयी हो गयी । काश! इसके भीतर अहंकार न होता, तो इसकी आत्मा भी स्वर्णमयी हो गयी होती। अहंकार ने एक सख्त दीवाल खड़ी कर दी इसकी आत्मा के चारों तरफ। वह जो बुद्ध का प्रभाव था, काश्यप का जो प्रसाद था, वह भीतर तक प्रवेश न हो सका। अहंकार की दीवाल ने उसे बाहर - बाहर रखा । यह भीतर-भीतर अकड़ा रहा। यह भीतर-भीतर सोचता रहा : यह सब तो मैं भी जानता हूं। इसमें क्या नया है ? यह सब तो मुझे पता है। इसमें कुछ ऐसी खास बात नहीं है। खैर, सुने लेता हूं। लेकिन इसमें मुझसे ज्यादा कुछ भी नहीं है । ऐसी अकड़ — वंचित रह गया। ऐसी अकड़ में चूक गया।
तो बाहर तो सुंदर हो गया, भीतर कुरूप रह गया। उस अंतर- कुरूपता के
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