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प्रवचन- २५
चलते हैं। देवलोक में अनासक्ति के संस्कार जाग्रत होते हैं। इससे जीवात्मा भोगसुखों में अनासक्त रहता है।
देवलोक में भी मोक्षयात्रा चालू रहती है :
देवलोक में अविरति ही होती है यानी कोई व्रत - नियम - प्रतिज्ञा देव-देवी नहीं ले सकते, न ही पालन कर सकते हैं । परन्तु यह एक अनिवार्य स्थिति है। सुख अविरत जीवन में ही भोगे जा सकते हैं, सर्वविरति जीवन में नहीं । देवलोक में सुख भोगने होते हैं। सुख भोगने से ही पुण्यकर्म समाप्त होते हैं। पुनः वह मनुष्यजीवन पायेगा, पुनः सर्वविरतिमय साधुजीवन को स्वीकारेगा और कर्मों की निर्जरा करता हुआ मोक्ष के प्रति आगे बढ़ता जाएगा। इसलिए आपको घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है! आपको कोई नुकसान नहीं होगा.. .. यदि आप साधुधर्म का चुनाव कर साधुधर्म स्वीकार करेंगे और पुण्यकर्म बांधकर देवलोक में जायेंगे, तब भी मोक्षमार्ग की यात्रा चलती ही रहेगी, स्थगित नहीं होगी। आज आपको चुनाव करना है ! या तो साधुधर्म का अथवा गृहस्थ धर्म का ! ग्रन्थकार महर्षि ने दो प्रकार का धर्म बताया है। हालाँकि तीर्थंकर परमात्मा ने जो दो प्रकार बताये हैं वे दो प्रकार ग्रन्थकार ने बताये हैं, आप लोग चिन्ता नहीं करना ! यदि आप साधुधर्म पसन्द करेंगे तो भी मैं आज ही आपको साधुधर्म देनेवाला नहीं हूँ! चूँकि यह वर्षाकाल है, आप जानते कि हमारी धर्ममर्यादानुसार वर्षाकाल में दीक्षा नहीं दी जाती है ! इसलिए आप मुक्त मन से चुनाव करना | आपको अपने स्वयं के लिए चुनाव करना है।
अच्छा लगे वह प्यारा लगता है :
सभा में से : साधुजीवन अच्छा तो लगता है, परन्तु गृहस्थजीवन प्यारा लगता है! साधुजीवन अच्छा है, ऐसा समझने पर भी प्रेम नहीं होता है और गृहस्थजीवन अच्छा नहीं है, पायमय है, ऐसा जानने पर भी उस पर प्रेम हो जाता है!
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महाराजश्री : मनोविज्ञान का एक नियम है जो वस्तु अच्छी लगती है, वह वस्तु प्यारी लगती ही है। आप लोगों की बात दूसरी है ! आप लोग साधुजीवन को अच्छा इसलिए कहते हो, चूँकि आप एक साधु के सामने बैठे हो! आप लोग साधुपुरुषों के भक्त हैं! इसलिए! 'अच्छा' तो कहना ही पड़ेगा । अथवा, जब शान्त चित्त से सोचते होंगे तब साधुजीवन अच्छा लगता होगा....परन्तु
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