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* चौवीस तीथकर पुराण *
मती नामक वैश्य दम्पतीके धनदेव नामका लड़का हुआ। वजनाभिके वजूज घ भवमें जो मतिवर, आनन्द. धनमित्र और अकम्पन नामके मन्त्री, पुरोहित, सेठ और सेनापति थे वे मरकर अधोवेयकमें अहमिन्द्र हुए थे अब वे भी वहांसे चयकर वजनाभिके भाई हुए। वहां उनके नाम सुबाहु, महावाहु, पीठ और महापीठ नाम रक्खे गये थे। इस तरह ऊपर कहे हुए दशों वालक एक साथ खेलते, बैठते उठते, लिखते और पढ़ते थे क्योंकि उन सबका परस्परमें बहुत प्रेम था। राजपुत्र वजनाभिका शरीर पहले सा सुन्दर था पर जवानीके आनेपर वह और भी अधिक सुन्दर मालूम होने लगा था। उस समय उसकी लम्बी और स्थूल भुजाएं, चौड़ा सीना, गम्भीर नयन तथा तेजस्वी चेहरा देखते ही बनता था। एक दिन वजनाभिके पिता वज सेन महाराज संसारके विषयोंसे उदास होकर वैराग्यका चिन्तवन करने लगे उसी समय लौकान्तिक देवोंने आकर उनके विरक्त विचारोंका समर्थन किया जिससे उनका वैराग्य और भी अधिक बढ़ गया। अन्तमें वे ज्येष्ठ पुत्र वजनाभिको राज्य देकर हजार राजाओंके साथ दीक्षित हो गये और कठिन तपस्याओंसे केवल ज्ञान प्राप्त कर अपनी दिव्य वाणीसे पथ भ्रान्त पुरुषोंको सच्चा मार्ग बतलाने लगे और कुछ समय बाद आठों फर्मोको नष्टकर मोक्ष स्थानपर पहुंच गये। इधर वजनाभिकी आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ जिसमें एक हजार आरे थे और जो अपनी कान्तिसे सहस्र किरण सूर्य सा चमकता था। चक्ररत्न को आगेकर राजा वजनाभि दिग्विजयके लिये निकले और कुछ समय बाद दिग्विजयी होकर लौट आये । अव वजनाभि चक्रवर्ती कहलाने लगे थे। उनका प्रताप और यश सब ओर फैल रहा था । उस समय वहां उनसा सम्पति शाली पुरुष दूसरा नहीं था जो केशव (श्रीमतीका जीव ) स्वर्गसे चयकर उसी पुण्डरीकिणी पुरीमें कुवेरदत्त और अनन्तमती नामक वैश्य दम्पतीके धन देव नामका पुत्र हुआ था वह वजनाभिका गृह पति नामक रत्न हुआ इस प्रकार नौनिधि और चौदह रत्नोंका स्वामी सम्राट बजनाभिका समय सुखसे बोतने लगा। किसी समय महाराज बज नाभिका चित्त संसारसे विरक्त हो गया जिससे वे अपने बज दन्त पुत्रको राज्यका भार सौंप कर सोलह हजार
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