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ब्रह्मविलास में
कवित्त.
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अरे नर मूरख तू भामनीसों कहा भूल्यो, विपकीसी वेल काह दगाको बनाई है । सेवत ही याहि नैकु पावत अनेक दुःख, सुखहूकी बात कहूं सुपनै न आई हैं ॥ रसके कियेसा रसरोगको रसंस होइ, प्रीतिके कियेसों प्रीति नरककी पाई है । यह शुभ्र सागर में डूविवेकी ठौर 'भैया', यामें कछु धोखा खाय रामकीदुहाई है ॥ ७९ ॥
मात्रिक कवित्त.
चंद्रमुखी मन धारत है जिय, अंतसमें तोकों दुखदाई | चार गतिमें यही फिरावत, तासों तुम फिर प्रीति लगाई ॥ बार अनंती नरकहिं डारिके, छेदन भेदन दुःख सहाई । सुबुधि कहै सुनि चेतनप्रानी, सम्यक शुद्ध गहौ अधिकाई ॥८०॥
सवैया..
रे मन मूढ विचारि करो, तिथके संग वात सवै विरंगी । ए मन ज्ञान सुध्यान धरो, जिनके संग बात सबै सुधरैगी ॥ धू गुण आपु विलक्ष गहो पुनि, आपुहितै परतीति टरैगी । सिद्ध भये ते यही करनी कर, ऐसें किये शिव नारि वरैगी ॥८१॥
सोरठा.
एहो चेतनराय, परसों प्रीति कहा करी ।
जे नरकहिं ले जाहिं, तिनहीसों राचे सदा ॥ ८२ ॥ मात्रिक कवित्त. वेतन नींद बडी तुम लीनी, ऐसी नींद लेय नहिं कोय । काल अनादि भये तोहि सेवत, विनजागे समकित क्यों होय ॥
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