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Note:
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अक्षरवत्तीसिका.
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वोध वीज लहिये अभिराम । विधिसों कीजे आतमकाम ||२४|| भव्भा कहें. भरमके संग । भूलि रहे चेतन सर्वेग ॥ भाव अज्ञाननको कर दूर । भेदज्ञानतें परदल चूर ॥ २५ ॥ मम्मा कहें मोहकी चाल । मेटि सकल : यह परजंजाल ॥ मानहु सदा जिनेश्वरंवन । मीठे मनहु सुधात ऐन ॥ २६ ॥ जज्जा कहे जैनवृप गहो । ज्यां चेतन पंचमि गति लहो ॥ जानहु सकल आप परभेद । जिहँजानें हैं कर्म निखेद ॥ २७ ॥ रर्रा कह राम सुनि वैन । रमि अपने गुन तज परसैन ॥ रिद्ध सिद्ध प्रगटहि ततकाल । रतन तीन लख होहु निहाल ||२८|| लल्ला कहे लखहु निजरूप । लोकअग्र सम ब्रह्मस्वरूप ॥ लीन होहु वह पद अवधारि । लोभकरन परतीत निवारि ॥ २९ ॥
सोरटा.
वव्वा वोले चैन, सुनो सुनोरे निपुण नर ॥ कहा करत भव सैन, ऐसो नरभव पाय के ॥ ३० ॥ दोहा.
शक्षा शिक्षा देत हैं, सुन हो चेतन राम ॥
सकल परिग्रह त्यागिये, सारो आतम काम ॥ ३१ ॥ खक्खा खोटी देह यह, खिणक माहि खिर जाय ॥
खरी सुआतम संपदा, खिरं न थिर दरसाय ॥ ३२ ॥ . सस्सा सजि अपने दहि, शिवपथ करहु विहार ॥ होय सकल सुख सास्वते, सत्यमेव निरधार ॥ ३३ ॥ हा क हित सीख यह, हंस वन्यों है दावे ॥ हरिलै छिनमें कर्मको, होय बैठि शिवराव ॥ ३४ ॥
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