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परमात्मशतक. मुद्दत लों परवश रहे, मुद्दत कर निज नैन । मुद्दत आई ज्ञानकी, मुद्दतकी, गुरु वैन ॥ २५॥ ज्ञान दृष्टि धर देखिये, शिष्ट न यामहिं कोय ॥ ईष्ट कर पर वस्तुसों, मिष्ट रीति है सोय ॥ २६॥ तुम तो पद्म समान हो, सदा अलिप्त स्वभाव ॥ लिप्त भये गोरस विपं, ताको कौन उपाव ॥ २७॥ वेदभाव सव त्याग कर, वेदं ब्रह्मको रूप ॥ वेद माहिं सब खोज है, जो वेदे चिंद्रूप ॥ २८॥ अनुभवमें जोलों नहीं, तोलों अनुभव नाहिं ॥ जे अनुभव जानें नहीं, ते जी अनुभव माहि ॥ २९॥ अपने रूप स्वरूपसी, जो जिय राखै प्रेम ॥ सो निहच शिवपद लहै, मनसावाचानेम ॥३०॥
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(२५) हे आत्मन्! तुम अपने नेत्रोंको (मुदित ) मुद्रित अर्थात् बंद करके ( मुद्दतलों ) बहुत समय तक परवश अर्थात् पुद्गलके वशमें रहे; परंतु नत्र ज्ञानकी ( मुद्दत ) अवधि आई, तव गुरुके वचनोंने क. ( मुद्दत ) मदत अर्थात् सहायता कीन्ही.
(२९) नबतक अनुभव- अनु-पश्चात् ' भव-संसारमें नहीं अर्थात् एनबतक थोड़े भव बाकी न रहे, तबतक 'अनुभव', अर्थात् सम्यक है
ज्ञान नहीं है, क्योंकि जो अनुभव (सम्यक ज्ञान ) नहीं जानते हे हैं, वे 'अनुभव', अर्थात् पीछे संसारमें ही पड़े रहते हैं, .
(१) उत्तम. (२) प्यार. () 'भूट' खराय. (४) 'गो' इन्द्रियोंके 'रस' विषयमें. (५)ीपुनपुसकमाव. (६) आत्माका स्वरूप जान. (0) शास्त्रोंमें. (0) पता.
(6) यदि चिद्रूपको जानता हो तो. नहीं तो कुछ नहीं. १० मनसे और वचनसे. SwwapmarwomenPREPOnPOOOOOPERIODEOS
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