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परमात्मशतक. जित देखत तित चांदनी, जव निज नैनन जोत ॥ नैन मित्रत पेखै नहीं, कौन चांदनी होत ॥५४॥ ज्ञान भान परगट भयो, तम अरि नासे. दूर ॥ . धर्म कर्म. मारग लख्यो, यह महिमा रहिपूर ॥ ५५॥ जेतन की संगति किये, चेतन होत अजान ॥ ते तनसों ममता धरै, आपुनो कौन सान ॥५६॥ जे तन सों दुख होत है, यहै अचंभो मोहि ॥ चेतन सों ममता धरै, चेतन! चेतन तोहि ॥ ५७ ॥ जा तनसों तू निज कहै, सो तन तो तुझ नाहिं । ज्ञान प्राण संयुक्त जो, सो तन तौ तुझ माहिं ॥५॥ जाके लखत यहै लख्यो, यह मै यह पर होय ॥ . महिमा सम्यक् ज्ञानकी, बिरला झै कोय ॥ ५९॥ छहों द्रव्य अपने सहज, राजत हैं जग माहिं ।। निहचै दृष्टि विलोकिये, परमें कवहूं नाहिं ॥ ६० । जड़ चेतन की भिन्नता, परम देवको राज ॥ सम्यक होत यहै लख्यो, एक पंथ द्वै काज ॥११॥ समुझे पूरण ब्रह्मको, रहै लोभ लौ लाय ॥ जान बूझ कूए परै, तासों कहा वसाय ॥ २॥ जाकी प्रीतिप्रभावसों, जीत .न कवर होय ॥ ताकी महिमा जे घरे, दुरखुद्धी जिय सोय ॥६३ ॥ जाकी परम दशावि, कर्म कलङ्क न कोय ॥ ताकी प्रीतिप्रभावसों, · जीव जगतमें होय ॥६४ ॥
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apasabardapdapada
१ज्योतिप्रकाश. २ बन्द होते. ३ सूर्य. ४ चातुर्य. ५ ममता. KapopranopanpreeMppromopencompan