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ब्रह्मविलासमें
मात्रिक सवैया ( ३२मात्रा) या मनके मान हरनको भैया, तू निहचै निज जानि दया। को हित तोहि विचारत क्यों नहिं, रागरुद्वेष निवारि नया॥ भर्मादिक भाव विछेद करो, ज्यों तोहि लोपन प्रकाश भया। यामन मानह कोन भलो, नन लोभ न कोहन मान मया ॥५॥
पर्वतवद्ध चित्रम्.
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