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चित्रवद्ध कविता.
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षट्पद. तजहु पंचरिपु चलन, रचह्न निजपरजी पापरीतप हरहु रटतकिमवर जी ॥ मनधर धर्म स्वरूप, देख अदभुत वदन । पूर निज गुन भयो, सुमति जीते मदन ॥ यह एक बहुत कर्म, न मिलें, छिनर
नृत्य करन । यहि जान पंच पद सुम रिले सुमवसागरहिनरंत ॥
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