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ब्रह्मविलासमें है अपनी नवनिधि छाडि कै, मांगत घर २ भीख ॥
जान बूझ कूए परै, ताहि कहाँ कहा सीख ॥६५॥ मूढं मगन मिथ्यातमें, समुझे नाहिं निठोल ॥ कांनी कौड़ी. कारणे, खोवै रतनं अमोल ॥६६॥ कानी कौड़ी विषय सुख, नरभव रतन अमोल ॥ पूरव पुन्यहिं कर चढ्यो, भेद न लहें निठोल ॥१७॥ चौरासी लखमें फिरै, रागद्वेप परसङ्ग ॥ तिनसों प्रीति न कीजिये, यह ज्ञानको. अङ्ग ॥६८॥ चल चेतन. तहां जाइये, जहां न राग विरोध ॥ निजस्वभाव परकाशिये; कीजे आतम बोध ॥ ६९ ॥ तेरे वाग सुज्ञान हैं, निज गुण फूल विशाल ॥ ताहि विलोकहु परमतुम, छांडि आल जंजाल ॥ ७० ॥ छहों द्रव्य अपने सहज, फूले फूल सुरंग ॥ तिनसों नेह न कीजिये, यहै ज्ञानको अंग ॥ ७१ ॥ सांच विसारथो भूलके, करी झूठसों प्रीति ॥ ताहीत दुख होत हैं, जो यह गही अनीति ॥७२॥ हित शिक्षा इतनी यहै, हंस सुनहु आदेश ॥ . गहिये शुद्ध स्वभावको, तजिये कर्म कलेश ॥ ७॥
सोरग. ज्यों नर सोवत कोय, स्वप्न माहिं राजा भयो । त्यों मन मूरख होय, देखहि सम्पति भरमकी ।। ७४ ॥ कहहु कौन यह रीति, मोहि वतावहु परमतुम ॥
तिन ही सों पुनि प्रीति,जो नरकहिं ले जात हैं ॥ ७५ ॥ १ निठल्ला वेकाम मूर्ख. २ फूटी. ३ वगीचा'४ शुद्धात्मा !
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