Book Title: Bramhavilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 287
________________ -------- KannivanavinaamaranMEDisainarampantravivaavaniANJANVarandir ACABAwwaardem परमात्मशतक. तरी पी तुम भूलके, तारीतन रसलीन ॥ तारी खोजहु ज्ञानकी, तारी पति परवीन ॥ ११॥ जिनं भूलहु तुम भर्ममें, जिन भूलहु जिनधर्म ॥ जिन भूलहिं तुम भूलहो, जिन शासनको मर्म ॥ १२॥ फिरें बहुत संसारमें, फिर २ थाके नाहिं।। फिरे जहिं निर्जरूपको, फिरे न चहं गति माहि ॥१३॥ हरी खात हो वावरे, हरी तोरि मति कौन ॥ हरी भजो आपा तजो, हरी रीति सुख हौन ॥१४॥ . द्वयक्षरी दोहा. जैनी जाने जैन नै, जिन जिन जानी जैन । जेजे जैनी जैन जन, जाने निज निज नैन ॥ १५ ॥ तुम्हारी (पत) लज्जा है अथवा तुम प्रवीन और तारीपति कहिये ज्ञान-2 रूपी तारीके पतिहो । (१४) हे (पावरे) भोले जीव ! तेरी मति किसने हरली है, जो तू (हरी) (सवित्त वस्तुएँ) खाता है, अब आपो (ममत्व) छोड़ करके (हरी) सिद्ध भगवान को भजो अर्थात् ध्यावो. यही सुखहोनेवाली (हरी) ताजी अथवा उत्तम रीति है, (१५) नैनी जैनशास्त्रोक्त नयोंको जानता है, और (जिन) जिन्हों ने उन नयोंको (जिन)नहीं जानी, उनकी (जैन) जय नहीं होती है. इसलिये (जेने) जो जो (जैननन ) जिनधर्मके दास जैनी हैं वे अपनी २ (नैन ) नयोंको अवश्य ही जाने अर्थात् समझें. (6) एक प्रकारका नशा. (२) मत (निषेधार्थ). (३) जिनेश्वर भगवानको. SC) अमण कर. (५) पलटे, सन्मुख होवे. (६) आत्मरूप. wawatan quppopoopanprasawenawantosbansweapo n sorsponsoreovenapranapreso - --

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