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a reneurAnuvranvenvenSWORDARDARPANORPOOR परमात्मशतक.
२७२३ सारे विभ्रम मोहके, सारे जगत मझार ॥ सारे तिनके तुम परे, सारे गुणहि विसार ॥३॥
सोरठा. पीरे होहु सुजान, पीरे का रे है रहे ॥ पीरे तुम विन ज्ञान, पीरे सुधा सुवुद्धि कह ॥ ४ ॥ विमल रूप निजमान, विमल आन तू ज्ञान में || विमल जगतमें जान, विमल समलतातें भयो ॥५॥ 'उजरे भाव अज्ञान, उजरे जिहत बंधये ।।
उजरे निरखे भान, उजरे चारहु गतिनतें ॥ ६ ॥ मात्माओंमें सिद्ध और सम्पूर्ण साधुओंमें साधु है इससे हे भव्य । उस निनातम रिद्धिको पेख अर्थात् देख ॥
(३) (सारे) सम्पूर्ण जगतमें जो मोहके (सारे) सब विभ्रम हैं, तुम (सारे) उत्तम २ गुणोंको विसारके उन्हींके (सारे) सहारे अर्थात् आश्रय पढ़े हो।
(१) हे मुनान ! (पीरे) पियरे अर्थात् प्यारे होमो. (पीरे) दु:खित (का रे) क्यों हो रहे हो, और तुम विना ज्ञानके ही (पीरे) पीड़े । है अर्थात् दुःखित हुए हो, इसलिये अब बुद्धि रूपी अमृत को ( पीरे) पान करो।
(५) हे विमल आत्मन् ! अपना (विमल) कर्मों से रहित स्वरूप मान करके (तू ज्ञानमें आन ) ज्ञानको प्राप्त हो, (विमल) विशेष मलद रहित सिद्ध संसारमें से ही जानों, क्योंकि विमल मलसहितसे होता है, भावार्थ मोक्ष संसारपूर्वकही होताहै।
(६) हे आत्मन 1 वह अज्ञानमाव (उजरे) उमड़े अर्थात् विनाश MandirmananARWADRAMARPATRAPPERSPERMAN
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