Book Title: Bramhavilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 284
________________ Praveena M wwwam BistasaNERGov Consorenoproacrasranamasansorepaoooooooooonacancrosco RESPDCPPnARPANwASORRENDERuwenwenames १२७८ ब्रह्मविलासमें जो घर तज्योतोकहा भयो,रागतज्यो नहिं वीर! ॥ साँप तजै ज्यों कंचुकी, विप नहिं तले शरीर ॥ २७ ॥ भरतक्षेत्र पंचम समय, साधु परिग्रहवंत ॥ कोटि सात अरु अर्ध सव, नरकहिं जाय परंत ॥ २८ ॥ देत मरन भव सांप इक, कुगुरु अनंती बार ।। वर सांपहिं गहपकरिये, कुगुरु न पकर गवार ॥ २९ ॥ वाघ सिंघको भय कहा? एकवार तन लेय ॥ भय आवत है कुगुरुको, भवभव अति दुख देय॥ ३०॥ दृगके दोप न छूटहीं, मृग जिमि फिरत अजान ॥ धृग जीवन या पुरुषको, भृगुकेदास समान ॥ ३१ ॥ केवलज्ञान स्वरूप मय, राजत श्री जिनराय ॥ वंदत हो तिनके चरन, मनवच शीस नवाय ॥ ३२॥ कर्मनके वश जीव सव, वसत जगतके माहि ।। जे कर्मनको वस किये, ते सव शिवपुर जाहि ॥ ३३ ॥ इति फुटकर कविता. asAndamudrat/EtiestivaDreatmosamasanasanvaapan p e wana अथ परमात्मशतक लिख्यते। दोहा, पंच परम पद प्रणमिके, परम पुरुष आराधि । कहों का संक्षेपसों, केवल ब्रह्म समाधि ॥१॥ सकल देवमें देव यह, सकल सिद्धमें सिद्ध ॥ सकल साधुमें साधु यह, पेख निजातमरिद्ध ॥२॥ (२) यह निजातम की समृद्धि सम्पूर्ण देवोंमें देव, सम्पूर्ण सिद्ध पर-है १ एकाक्षी (काना). - mcom / RRORUDRAGOpenDOES

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