Book Title: Bramhavilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 282
________________ ARMA Haaropanaprocapooooooooooooooooooopanpop/commans ROPARDPREMPORYMARApps/Prammar २७६ ब्रह्मविलासमें मंजार निरखि नैवेद्यको, मर्कट फल इच्छा धरहि। तंदुलहिं चिरा पुष्पहिं मैंवर, एक थाल भुंजन करहि ॥१॥ मात्रिक कवित्त. जे जिह काल जीव मत ग्राही, किरिया भावहोहिं रस रत्त । कर करनी निज मन आनंदै, वांछा फल चिंतहिं दिन रत्त ॥ रहित विवेक सु ग्रंथ पाठ कर, झार धूर पद तीन धरत । तिनको कहिये औगुनथानक, चक्रीधरमें नृपति भरत॥१४॥ कवित्त. है केई केई वेर भये भूपर प्रचंड भूप, बड़े बड़े भूपनके देश है छीनलीने हैं । केई केई बेर भये सुर भौनवासी देव, केई केई वेर तो निवास नर्क कीने हैं । केई केई वेर भये कीट मलमूत माहिं, ऐसी गति नीचवीच सुख मान भीने हैं। कौड़ीके अनंत है भाग आपन विकाय चुके, गर्व कहा करे मूढ़ ! देख ! हग दीने । haprasweateraneetenerapMANTARNATANTRASEANIDEnt ए जब जोग मिल्यो जिनदेवजीके दरसको, तब तो संभार कछु है करी नाहिं छतियाँ । सुनि जिनवानीपै न आनी कहूं मन माहि., ऐसो यह पानी यों अज्ञानी भयो मतियाँ ॥ स्वपर विचारको प्रकार कछु कीन्हों नाहि, अव भयो बोध तब झूरे दिन रतियाँ। । इहाँ तो उपाय कछु बनै नाहिं संजमको, बीत गयो औसर बनाय कहै बतियाँ ॥ १६ ॥ छप्पय. जहाँ जपहिं नवकार, तहाँ अघ कैसे आवें। जहाँ जपहिं नवकार, तहाँ व्यंतर भज जावें ॥ coconadamaANGPROPOSPORENOODeman constipati

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