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ब्रह्मविलासमें मंजार निरखि नैवेद्यको, मर्कट फल इच्छा धरहि। तंदुलहिं चिरा पुष्पहिं मैंवर, एक थाल भुंजन करहि ॥१॥
मात्रिक कवित्त. जे जिह काल जीव मत ग्राही, किरिया भावहोहिं रस रत्त । कर करनी निज मन आनंदै, वांछा फल चिंतहिं दिन रत्त ॥ रहित विवेक सु ग्रंथ पाठ कर, झार धूर पद तीन धरत । तिनको कहिये औगुनथानक, चक्रीधरमें नृपति भरत॥१४॥
कवित्त. है केई केई वेर भये भूपर प्रचंड भूप, बड़े बड़े भूपनके देश है
छीनलीने हैं । केई केई बेर भये सुर भौनवासी देव, केई केई वेर तो निवास नर्क कीने हैं । केई केई वेर भये कीट मलमूत माहिं, ऐसी गति नीचवीच सुख मान भीने हैं। कौड़ीके अनंत है भाग आपन विकाय चुके, गर्व कहा करे मूढ़ ! देख ! हग दीने ।
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ए जब जोग मिल्यो जिनदेवजीके दरसको, तब तो संभार कछु है करी नाहिं छतियाँ । सुनि जिनवानीपै न आनी कहूं मन माहि., ऐसो यह पानी यों अज्ञानी भयो मतियाँ ॥ स्वपर विचारको प्रकार कछु कीन्हों नाहि, अव भयो बोध तब झूरे दिन रतियाँ। । इहाँ तो उपाय कछु बनै नाहिं संजमको, बीत गयो औसर बनाय कहै बतियाँ ॥ १६ ॥
छप्पय.
जहाँ जपहिं नवकार, तहाँ अघ कैसे आवें।
जहाँ जपहिं नवकार, तहाँ व्यंतर भज जावें ॥ coconadamaANGPROPOSPORENOODeman
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