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ब्रह्मविलासमे यह तो बात प्रसिद्ध है, शोच देख उरमाहि ॥ नरदेहीके निमितविन, जिय क्यों मुक्ति न जाहि ॥१६॥ देह पीजरा जीवको, रोकै शिवपुर जात ॥ उपादानकी शक्तिसों, मुक्ति होत रे भ्रात ॥ १७॥ उपादान सव जीवपै, रोकन हारो कौन ॥ जाते क्यों नहिं मुक्तिमें, विन निमित्तके होन ॥ १८ ॥ उपादान सु अनादिको, उलट रह्यो जगमाहि ॥ सुलटतही सूघे चले, सिद्ध लोकको जाहिं ॥ १९॥ कहुं अनादि विन निमितही, उलट रह्यो उपयोग। ऐसी बात न संभव, उपादान तुम जोग ।। २०॥ उपादान कहै रे निमित, हम कही न जाय ॥ . ऐसे ही जिन केवली, देखै त्रिभुवन राय ॥२१॥
जो देख्यो भगवान ने, सोही सांचो आहि ॥ हम तुम संग अनादिके, वली. कहोगे काहि ॥ २२॥ उपादान कहै वह वली, जाको नाश न होय ॥ जो उपजत विनशत रहै, बली कहांतें सोय ॥ २३ ॥ उपादान तुम जोर हो, तो क्यों लेत अहार ॥ . परनिमित्तके योगसों, जीवत सब संसार ॥ २४ ॥ जो अहारके जोगसों, जीवत है जगमाहिं ॥ . तो वासी संसारके, मरते कोऊ नाहि ॥ २५ ॥ सूर सोम मणि अंगिनके, निमित लखें ये नैन । अंधकारमें कित गयो, उपादान हग. दैनं ॥ २६ ॥ सूर सोम मणि अग्नि जो, करें अनेक प्रकाश ॥
नैन शक्ति विन ना लखै, अन्धकार सम भास ॥२७॥ WapproPDPORROWADwhePAPPROPenaloweo
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Eraprapovanvanp/abaranapdraprasapanapandanapaparso-/oprathapranapranaapanoos