Book Title: Bramhavilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 274
________________ Bior जंग २६८ ॐॐॐॐ ब्रह्मविलास में आतम सुआ सुगुरु वचन, पंढत रहै दिन रैन | करत काज अंघरीतिके, यह अचरज लखि नैन ॥ २ ॥ सुगुरू पढावे प्रेमसों, यहू पढत मनलाय ॥ घटके पट जो ना खुलै, सबहि अकारथ जाय ॥ ३ ॥ चौपाई. 1 सुवा पढायो सुगुरु बनाय । करम बनहि जिन जइयो भाय ॥ भूले चूके कबहु न जाहु । लोभनलिनिपैं दगा न खाहु ॥ ४ ॥ दुर्जन मोह दगाके काज । बांधी नलनी तर धर नाज ॥ तुम जिन बैठ हु सुवा सुजान । नाज विषयसुख लहि तिहँ थान ॥ ५ ॥ जो बैठहु तो पकरि न रहियो । जो पकरो तो दृढ जिन गहियो । जो दृढ. गहो तो उलटि न जइयो । जो उलटो तौ तजि भजि घइयो | ६ ॥ इह विधि सूआ पढायो नित्त । सुवटा पढिके भयो विचित्त ॥ पढत रहे निशदिन ये वैन | सुनत लहै सब प्रानी चैन ॥ ७ ॥ इक दिन सुवदैं आई मनै । गुरु संगत तज भज गये बनै ॥ वनमें लोभ नलिन अति बनी । दुर्जन मोह दगाको तनी ॥ ८ ॥ ता तरु विषयभोग अन धरे । सुवटै जान्यो ये सुख खरे ॥ उतरे विषयसुखनके काज | बैठ नलिनपैं बिलसै राज ॥ ९ ॥ बैठो लोभ नलिनपै जबै । विषय स्वाद रस लटके तबै ॥ लटकत तरें उलटि गये भाव । तर मूंडी ऊपर भये पांव ॥ १० ॥ नलिनी दृढं पकरै पुनि रहे । मुखतें वचन दीनता कहै कोड न बनमें छुडावनहार । नलनी पकरहि करहि पुकार ॥११॥ पढत रहै गुरुके सब वैन ! जे जे हितकर सिखये ऐन ॥ " सुवटा नमें उड जिन जाहु । जाहु तो भूल खता जिन खाहु ॥ १२ ॥

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