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ब्रह्मविलास में
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जिनंबर ज्ञानमझार ॥ सुनतें सुवटा चौंक्यो आप । यह तो मो२४ ॥ ये दुख तो सब मैं ही सहे । जो
हि परयो सब पाप ॥ मुनिवरने मुखतें कहे ॥ सुवटा सोचै हिये मझार । ये गुरु सांचे तारनहार ॥ २५ ॥ मैं शठ फिरधो करमवन माहिं । ऐसे गुरु कहुँ पाये नाहिं | अब मोहि पुण्य उदै कछु भयो । सांचे गुरुको दर्शन लयो ॥ २६ ॥ गुरुकी गुणस्तुति वारंवार । सुमिर सुवटा हिये मझार ॥ सुमरत आप पाप भज गयो । घटके पट है खुल सम्यक थयो ॥ २७ ॥ समकित होत लखी सब वात । यह मैं यह परद्रव्य विख्यात | चेतनके गुण निजमहि धरे । पुद्गल | रागादिक परिहरे ॥ २८ ॥ आप मगन अपने गुण माहिं । जन्म मरण भय जियको नाहिं ॥ सिद्ध समान निहारत हिये । कर्म कलंक सबहि तज दिये ॥ २९ ॥ ध्यावत आप माहिं जगदीश । दुहुपद एक विराजत ईश ॥ इहविधि सुवटा ध्यावत ध्यान । दिनदिन प्रति प्रगटत कल्यान ॥ ३० ॥ अनुक्रम शिवपद जियको भया । सुख अनंत विलसत नित नया || सतसंगति सबको सुख देय । जो कछु हियमें ज्ञान धरेय ॥ ३१ ॥ केवलिपद आतम अनुभूत | घट घट राजत ज्ञान संजूत ॥ सुख अनंत विलसै जिय सोय । जाके निजपद परगट होय ॥ ३२ ॥ सुवा बतीसी सुनहु सुजान। निजपद प्रगटत परम निधान || सुख अनंत बिसहु ध्रुव नित्त । 'भैयाकी' विनंती धर चित्त ॥ ३३ ॥ संवत सत्रह त्रेपन माहिं । अश्विन पहिले पक्ष कहाहिं ॥ दशमी दशों दिशा परकास । गुरु संगति तैं शिव सुखभास ॥ ३४ ॥ इति सूवाबत्तीसी ।