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सूवाबत्तीसी.
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२६९ नलनीके जिन जइयो तीर । जाहु तो तहां न बैठहु वीर ॥ जो इ बैठो तो दृढ जिन गहो । जो दृढ गहो तो पकरि न रहो॥१३॥ जो पकरो तो चुगा न खइयो । जो तुम खावो तो उलटन जइयो। जो उलटो तो तज भज धइयो । इतनी सीख हृदय में लहियो" ॥ १४ ॥ ऐसे वचन पढत पुन रहै । लोभ नलनि तज भन्यो न चहै ॥ आयो दुर्जन दुर्गति रूप । पकड़े सुवटा सुंदर है
भूप ॥ १५॥ डारे दुखके जाल मझार । सो दुख कहत न आहवे पार ॥ भूख प्यास बहु संकट सहै । परवस परे महा दुख
लह ॥ १६ ॥ सुवटाकी सुधि वुधि सव गई। यह कछु भई । आय परे दुख सागर माहिं । अव इतत कितको है भज जाहिं ॥ १७ ॥ केतो काल गयो इह ठौर । सुवटै जियमें है
गनी और ॥ यह दुख जाल कटै किहँ भाँति । ऐसी मनमें ८उपजी खाँति ॥ १८ ।। रात दिना प्रभु सुमरन करै । पाप जाल
काटन चित धरै ॥ क्रम क्रम कर काव्यो अघजाल । सुमरन फ
ल भयो दीनदयाल ॥ १९ ॥ अव इतत जो भजके जाउं । तो है इनलनीपर बैठ न खाउं॥पायो दाव भज्यो ततकाल । तज दुर्जन
दुर्गति जंजाल || २० । आये उडत बहुर वनमाहिं । वैठे नर-3 भव द्रुमकी छाहि ॥ तित इक साधु महा मुनिराय । धर्म देशना देत सुभाय ॥ २१॥ यह संसार कर्मवनरूप । तामहि चेतन सुआ अनूप ॥ पढत रहे गुरु वचन विशाल । तौ हून अपनी कर संभाल ॥ २२ ।। लोभ नलिन बैठे जाय । विषय स्वाद रस लटके आय ।। पकरहि दुर्जन दुर्गति परे। तामें दुःख ,
वहुत जिय भर ॥ २३ ॥ सो दुख कहत न आवै पार । जानत PHARMWAROOPondoscopencommons
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