Book Title: Bramhavilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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ॐ
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पंचेंद्रियसंवाद.
दोहा.
२४९
सिरदार ॥ संसार ॥ ११२ ॥
इहि
मन राजा मन चत्रि हैं, मन सबको मनस वडो न दूसरो, देख्यो मनतें सबको जानिये, जीव जिते जगमाहिं ॥ मनतें कर्म खपाइये, मनसरभर कोउ नाहिं ॥ ११३ ॥ मनत करुणा कीजिये, मनते पुण्य अपार ॥
मनत आतमतत्त्वको, लखिये सर्व विचार ॥ ११४ ॥ मनहि सयोगी स्वामिपै, सत्य रह्यो ठहराय ॥
चार कर्मके नाशत, मन नहिं नाश्यो जाय ॥ ११५ ॥ मन इन्द्रिनको भूप है, इन्द्रिय मनके दास ॥
यह ती वात प्रसिद्ध है; कीन्हीं जिनपरकाश ॥ ११६ ॥ तत्र बोले मुनिरायजी, मन क्यों गर्व करंत ॥ देख हु तंदुल मच्छको, तुमतें नर्क परंत ॥ ११७ ॥ पाप जीव कोई करो, तू अनुमोदै ताहि ॥ तासम पापी तू कह्यो, अनरथ लेहि विसाहि ॥ ११८ ॥ इन्द्रिय तो बैठी रहें, तू दौर निशदीश ॥
छिन छिन बांध कर्मको, देखत है जगदीश ॥ ११९ ॥ बहुत वात कहिये कहा, मन सुनि एक विचार ॥ परमातमको ध्याइये, ज्यों लहिये भवपार ॥ १२० ॥ मन बोल्यो मुनि राजसों, परमातम है कौन ॥ स्वामी ताहि बताइये, ज्यों लहिये सुख भौन ॥ १२१ ॥ आतमको हम जानते, जो राजत घट माहिं ॥
परमातम किह ठौर हैं, हम तो जानत नाहिं ॥ १२२ ॥

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