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पंचेंद्रियसंवाद.
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जियको जगत फिरावती, और ह करे कलेश ॥ ९० ॥ जा दिन जिय थावर वसत, ता दिन तुममें कौन ॥ कहा गर्व खोटो करो, नाक आँख मुख श्रौन ॥ ९१ ॥ जीव अनंते हम धेरै, तुम तौ संख असंखि ॥ तितह तो हम विन नही, कहा उठत हो झंखि ॥ ९२ ॥ नाक कान नैना सुनो, जीभ कहा गवय
॥
सव कोऊ शिरनायकै, लागत मेरे झूठी झूठी सब कहै, सांची कहै न विन काया के तप तपे, मुक्ति कहांसों होय ॥ ९४ ॥
पाय ॥ ९३ ॥ कोय
॥
सह परीसह वीस है, महा कठिन मुनि राज || तब तो कर्म खपाइकै पावत हैं शिवराज ॥ ९५ ॥
ढाल - " मोरी सहियोरी जल न आवेगो" ए देशी । मोरासाधुजी फरस बडो संसार, करै कई उपकार, मोरा. दक्षिण करतें दीजिये जी, दान अनेक प्रकार ॥ तो तिहँ भवशिवपद लहैजी, मिटै मरनकी मार, मोरा० ॥९६॥ दान देत मुनिराजको जी, पावै परमानंद ॥ सुरनर कोटि सेवा करैजी, प्रतपै तेज दिनंद, मोरा० ॥ ९७ ॥ नरनारी कोऊ धरोजी, शील व्रतहिं शिरदार ॥
सुख अनेक सो जी लहैजी, देखो फरस प्रकार, मो० ॥ ९८ ॥ तपकर काया कृश करेजी, उपजै पुण्य अपार ॥
सुख विलसे सुर लोककेजी, अथवा भवदधि पार, मोरा० ॥ ९९ ॥ भाव जु आतम भावतोजी, सो वैठो मो माहिं ॥ काया विन किरिया नही जी, किरिया विन सुख नाहिं मो. ॥ १०० ॥
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