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पर्चेद्रियसंवाद.
इक दिन इक उद्यान में बैठे श्री मुनिराज ॥ धर्म देशना देत हैं, भवि जीवनके काज ॥ ३ ॥
समदृष्टी श्रावक तहां, विद्याधर क्रीड़ा करत, चली बात व्याख्यानमें, त्यों त्यों ये दुख देत है, ज्यों ज्यों कीजे पुष्ट ॥ ५ ॥ विद्याधर बोले तहाँ, कर इन्द्रिनको पक्ष ||
और मिले बहु लोक ॥ आय गये बहु थोक ॥ ४ ॥ पांचों इन्द्रिय दुष्ट ॥
स्वामी हम क्यों दुष्ट हैं, देखो बात प्रत्यक्ष ॥ ६ ॥
हमही सब जगलखे, 'यह चेतन यह नाउं ॥ इक इन्द्रिय आदिक सबै, पंच कहे जिहँ ठाउँ ॥ ७ ॥ हम जप तप होत हैं, हम क्रिया अनेक ॥ हमहीत संयम पलै, हम विन होय न एक ॥ ८ ॥ रागी द्वेपी होय जिय, दोप हमहि किम देह || न्याव हमारो कीजिये, यह विनती सुन लेहु ॥ ९ ॥ हम तीर्थंकर देव पैं, पांचों हैं परतच्छ ॥ कहो मुक्ति क्यों जात हैं, निजभावन कर स्वच्छ ॥ १०॥ स्वामि कहूँ तुम पांच हो, तुममें को सिरदार ॥ तिनसों चर्चा कीजिये, कहो अर्थ निरधार ॥ ११ ॥ नाक कान नैना कहै, रसना फरस विख्यात ॥ हम काह रोक नही, मुक्ति लोकको जात ॥ १२ ॥ नाक कहँ प्रभु मैं बड़ो, मोतैं बडो न कोय ॥ तीन लोक रक्षा करै, नाक कमी जिने होय ॥ १३ ॥
( १ ) मत.
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